पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१५

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और शूद्र है तो क्या ? भगवान के लिये सब समान है। अब जवनिक उठा दी गई । टेरा खुल गया । दर्शक भगवान' के दर्शनों आनंद लूटने लगे किंतु जैसे जलाशय के ज्यो ज्यो निकट पहुँचते जाते है त्यो ही त्यो तृषा बढ़ती है वैसे ही अब मंदिर में प्रवेश करके निकट से श्री जगदीश की भौकी करने की इच्छा बढी। अवश्य ही भीतर जाने के लिए किसी की रोक-टोक नहीं किंतु इतनी भीड़ में घुसकर अंधेरे मार्ग से जाना और फिर सही मलाशव लौट आना हंसी खेल नहीं। फिर आज सब ही चाहते हैं किंतु भीड़ के सिल-सिले को छोड़कर बीच के मार्ग से हम पहले ही भीतर चले जाए। बस इस तरह "हम पहले!"की होड़ाहोड़ो है। पंडों के सिपाहियों का हाथ गर्म हो रहा है, दर्शक उनकी घुड़ड़िया खाते हैं, वेद की मार खाते हैं, किंतु फिर भी कुछ दे दिलाकर औरों से पहले भीतर पहुंचते हैं। खैर! इतना ही बहुत है। हम हिंदुओं के सब ही मंदिरों मैं सब ही तीर्थों में इन बातों का अनुभव होता है, जब इस उपन्यास में पहले भी कई बार विषय में लिखा जा चुका है तब पीसो के पीसने से क्या लाभ?

अस्तु, पंडित पार्टी भी किसी न किसी प्रकार से मंदिर में जा पहुंची। वहाँ जाकर भगवान् जगदीश के समक्ष, उन परमात्मा के समक्ष जो सृष्टि उत्पन्न करने के समय ब्रह्मा, पालन करने में विष्णु और संहार करने के लिये शिव स्वरूप हैं दोनों हाथ जोड़कर, उनके अंग प्रत्यं के निरखकर