पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१८४

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मिथ्या मिथ्या अभिशाप लगाने में भी कतर नहीं रक्खी । बुरे बुरे और गंदे गंदे इलज़ाम लगा लगाकर कभी "बंदे खुला ।" के नाम से और कभी खुलालुली शिकायतें करवाई परंतु जो अपने सिद्धांतों पर अटल है उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। हर एक शिकायत में, हर एक लहकीकात में वह सौ टॅच का सोना निकले । सोना ज्यों ज्यों तपाया जाता है त्यों ही त्यों निखर निखरकर उसका रंग, उसका मूल्य बढ़ता जाता है। बस इसी तरह उनका आदर बढ़ा और जो लोग उनका सर्वनाश करने के लिये उधार खाए फिरते थे वे ही उनके आगे लज्जित होने लगे, उनका अनुकरण करने लगे और उनके मिन्न न बनकर उनकी प्रशंसा का ढोल पीटने लगे ।

जो कुछ वेतन उनका नियत था, वस उसी में उनको संतोष था । किसी के यहाँ से कोई छोटी मोटी वस्तु यदि भेट सौगात में आई अथवा बहुत दबाव पड़ने से किसी के यहाँ उन्हें दावत में ही संयुक्त होना पड़ा तो यह रिश्वत नहीं है। यह हाकिमों का सत्कार माना जाता है। इससे दाता का मान बढ़ता है किंतु नहीं ! उन्हें इन बातों तक की सौगंद थी । माई के लाल कितने ही ऐसे भी निकज़ सकते हैं जो इन बातों की सैगंद रखने पर भी हजारों के गट्टे निगलने में नहीं चूकते । हर एक आदमी के सामने पैसे पैसे के जिये हाथ पसारने से एक ही से इकट्ठा लेना भी अच्छा समझा जाता है । जमाने को देखते हुए वह भी बुरा नहीं समझा