पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२२)

“अतिकाल नहीं हुआ हो। एक बात पूछना चाहती हैं । मेरे मन में बड़ा संदेह है। जब से मैंने देखा है मैं लाज के मारे गरी जाती हूं। भगवान के मंदिर में ऐसा अनर्थ ? ऐसी निलज्जता ? भला अपने महाप्रसाद की उन लोगों को ब्याख्या सुनाकर उनके विषय में तो मेरा संदेह निवृत्त कर दिया । यह सत्य ही है कि यदि कहाचारी के लिये जाति पाँति का भेद नहीं है तो न रहे किंतु सदाचार कदाचारी क्यों एक हो जाए ?" ।

"भगवान् के दर्शन करने के अनंतर जब कदाचारी भी सदाचारी हो जाता है तब कदाचारी कौन रहा ? और कदाचारी को भगवान् जगदीश दर्शन भी ले नहीं देते ।"

"पर तु हम इस बात का निश्चय भी तो नहीं कर सकते कि कौन कदाचारी है।

“इसीलिये मैंने उन यात्रियों को ऐसी व्यवस्था दी है। इसीलिये हमारे लिये ऐसा कर्तव्य है ।"

“हाँ परंतु असल बात को हन छेड़िए ! मेरे प्रश्नों का उन्तर दीजिए।

“तेरे प्रश्न का उत्तर बड़ा गहन है। ऐसा संदेह केवल तुझे ही हुई है। सा नही । जे यहां आते हैं उन सबका थोड़ा बहुत संदेह अवश्य होता हैं। मंदिर के शिखर के नीचे मनुष्य को अच्छी तरह दिखलाई दे, ऐसे स्थान पर स्त्री पुरुष के संयेाग की मूर्तियाँ देखकर लोगों के संदेह हो तो इसमें