पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/७७

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आगे प्रकट कर देने से मन के काम, क्रोध, लोग, मोहादी विकार दुख,सुख, शोक,भय,शति इत्यादि शांत होते हैं।

कुछ भी हो किंतु पंडित प्रियानाथ यूं ही करते करते अपने साथियों सहित जब मुगलसराय स्टेशन पर पहुँचे तब एकाएक इनकी दृष्टि पंडित दीनबंधु पर पड़ी । गाड़ी ठहरते ही पंडित जी उतरकर लटके हुए उनके पास। पहुंच कर उन्होंने उनके चरणों में सिर रख दिया। दीनबंधु ने प्रियानाथ को उठाकर अपनी छाती से लगाया और पंडित जी"आप यहां कैसे?"इस प्रश्न के उत्तर में'इसलिए'काकर पंडित दीनबंधु इनके हाथ में तार का लिफाफा दिया। इन्होंने खोलकर उसे एक बार पढ़ा, दूसरी बार पढ़ा और तब भोला के हाथ प्रियावंदा हुए कहा --

“हे भगवन् ! तुमने बड़ी कृपा की !..हे दयासागर ! तुमने बचाया ! हे परमेश्वर ! अब जी में जी आया ! आपकी लीला अपार है। अब मुझे बोध हुआ कि आपकी इच्छा हमें दक्षिण यात्रा कराने की नहीं थी। अब सिद्ध हो गया कि आप सचमुच प्राणी मात्र को नटमर्कड की तरह नचाते हैं। आपने गीता में घुनर्धर अर्जुन को विराट् स्वरूप के दर्शन कराकर दिखला दिया है कि हम सब निमित्त मात्र हैं। होता वही है जो आपको मंजूर होता है। यह भी एक आफत थी । बिचारे के निरपराध कष्ट उठाना पड़ा। खैर, अच्छा हुआ है।