पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रकरण--५३
दीनबंधु के दर्शन

उंचासवे प्रकरण के अतर प्रामेश्वर की धाराप्रवाह वक्तता सुनकर यदि प्राप्यारी के संतोष हो गया हो तो अच्छी बात है, हो जाने दीजिए। पत्नी के प्रसन्न रखना पति का प्रधान कर्तव्य है किंतु पंडित जी अब भी बाते करते करते बीच बीच में, कभी कभी रुक जाते हैं, मौत्र व्रत धारण कर लेते हैं और अपने कमल नयनों से दो चार आंसू गिराकर तब अर्द्ध स्फुट शब्दों से--"भगवान् की इच्छा ! ईश्वर की लीला !" कहकर फिर गौड़बोले से बाते में प्रवृत्त हो जाते हैं ! उनकी ऐसी दशा घंटे दो घंटे रही हो तब तो कोई बात नहीं किंतु श्री जगदीशपुरी से चले एक किंवा गुजरा, एक रात गुजरी और फिर दूसरा दिन्' गुजरने को आया । केवल गौड़बाले से संभाषना होने ही पर यदि कोई मान लो कि उनकी विह्वज्ञता मिट गई तो माननेवाले को अधिकार है किंतु उनके हृदय की वास्तविक विह्वलता अभी ज्यों की त्यों है । यदि कंजूस के धन की तरह' पंडित जी अपने मन की बात मन में न छिपाते, साथियों के सामने प्रकाशित कर देते तो उनके मन का बोझ थोड़ा बहुत हलके भी हो जाता क्योंकि दुःख दूसरों को सुनने में घटता और सुख पढ़ता हैं । औरों के