पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१०५

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आठवां परिच्छेद


शांति-"बड़े बड़े सेनापति कौन-कौन है?

गोव०-"भवानन्द, जीवानंद, धीरानंद, ज्ञानानंद। इस आनन्दमठमें सब आनन्द-ही-आनन्द हैं।"

शांति-"चलो, मैं जरा उन घरोंको देख लूं।"

यह सुन, गोवर्द्धन पहले तो शांतिको धौरानन्दके घरमें ले उस समय धीरानन्द महाभारतका द्रोणपर्व पढ़ रहे थे। अभिमन्युने किस प्रकार सप्तरथियोंके साथ युद्ध किया था यही पढ़नेमें वे डूबे हुए थे। उन्होंने कुछ भी न कहा। शान्ति भी चुपचाप वहांसे लौट आयी।

इसके बाद वह भवानन्दके घर गयी। उस समय वे ऊपरको दृष्टि किये, किसीका मुखड़ा याद कर रहे थे। किसका मुखड़ा, सो तो नहीं मालूम, पर शायद वह मुख बड़ा ही सुन्दर था। उसके काले-काले घुघराले और सुगधियुक्त केश कानोंतक फैली हुई भौहोंपर आ पड़े थे। बीचमें विराजित सुंदर और त्रिकोण ललाटपर मृत्युकी भयङ्कर छाया पड़ रही थी मानों वहां मृत्यु और मृत्युञ्जयका आपसमें द्वन्द्व युद्ध हो रहा था। आंखें नद, भौंहें स्थिर, होंठ नीले, गाल पीले, नाक ठंढ़ी, छाती फूली हुई और हवासे कपड़े उड़ रहे थे। इसके बाद जैसे शरतकालका मेघ निर्मुक्त चन्द्रमा धीरे-धीरे मेघमालाको उज्ज्वल बनाता हुआ अपना सौंदर्य विकसित करता है, जैसे प्रभात सूर्य तरङ्गोंके आकारवाले मेघोंको क्रमसे सुनहला बनाता हुआ आप ही जगमगा उठता है; दशों दिशाओंको आलोकित करता हुआ स्थल, जल, कीट, पतङ्ग सबको प्रफुल्लित करता है, उसी तरहसे धीरे-धीरे उस मृत देहमें मानों प्राण-संञ्चार हो रहा था। अहा! कैसी शोभा है! भवानन्द बैठे बैठे यही सब सोच रहे थे। इसलिये वे भी कुछ न बोले। कल्याणीका रूप देखकर उनका हृदय कातर हो गया था, इसीलिये शांतिके रूपपर उनकी दृष्टि न पड़ी।