शान्तिने पूछा-“मैं आनन्दमठमें रहने पाऊंगी न?”
सत्या०-"तो आज फिर कहाँ जाओगी?"
शान्ति-"इसके बाद?”
सत्या०-"माता भवानीकी तरह तुम्हारे ललाटमें भी अग्नि है। सन्तान-सम्प्रदायको ही क्यों भस्म करोगी?"
यह कह, आशीर्वाद दे, सत्यानन्दने शान्तिको विदा किया। शान्तिने आपही आप कहा-"अच्छा बुड्ढे! रह जा मेरे ललाटमें आग लगी है न? अच्छा, तो मैं देखूंगी, कि तेरी माँके कपालमें आग लगी है या मेरे?"
सच पूछो, तो सत्यानन्दका यह अभिप्राय नहीं था उन्होंने उसकी आँखोंमें जो बिजली थी, उसीकी बात कही थी। पर क्या ऐसी बात किसी बूढ़े-बड़ेको नौजवानोंसे कहनी चाहिये।
शान्तिको उस दिन रातभरके लिये मठमें रहनेको आज्ञा मिली थी, इसलिये वह रहने के लिये घर ढूंढने लगी। अनेक घर खाली पड़े थे। गोवर्द्धन नामका नौकर वह भी एक छोटा-मोटा सन्तान हो था हाथमें चिराग लिये उसे घर दिखाता फिरता था। कोई घर शान्तिको पसन्द नहीं आया। हताश होकर गोवर्द्धन शान्तिको सत्यानन्दके पास ले चला। शान्तिने कहा-"क्यों भाई! इधरके कई घर तो तुमने दिखलाये ही नहीं?"
गोवर्द्धनने कहा,-"वे सब घर अच्छे है, इसमें सन्देह नहीं; पर सबमें आदमी भरे हैं।"
शान्ति-"कैसे केसे लोग हैं "
गोव०-"बड़े-बड़े सेनापतिगण।"