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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/११

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आनन्द मठ

मकान के भीतर इस दोपहर के समय भी अन्धेरा छाया है! उसी अन्धेरे घर के एक कमरे में एक अति सुन्दर स्त्री और पुरुष बैठे हुए सोच-सागर में डूब उतरा रहे हैं। उनके सामने प्रलयका दृश्य उपस्थित है।

संवत् ११७४ में फसल अच्छी नहीं हुई; इसलिये ११७५ में चावल की बड़ी महंगी रही, प्रजा घोर विपद में रही; लेकिन राजा ने अपनी मालगुजारी पाई-पाई वसूल कर ली। गुजारी बेबाक कर बेचारी दरिद्र प्रजा ने एक ही वक्त खाकर दिन बिताये। ११७५ में अच्छी बरसात हुई, लोगों ने सोचा, कि चलो, इस साल तो दैव की कृपा हो गयी। आनन्द से फूल के ग्वाले खेतों में गीत गाते हुए दिखाई देने लगे; गृहस्थी की स्त्रियाँ अपने स्वामी से चाँदी के गहने गढ़ा देने के लिये मचलने और हठ करने लगीं। यकायक आश्विन के महीने में विधाता बाम हो गये। आश्विन और कार्तिक में एक बूंद भी जल न पड़ने से खेतों के धान सूखकर खाक हो गये। किसी किसी के एक दो बीघों में धान नहीं सूखने पाये थे; पर वे सब राजा के नौकरों ने सैनिकों के खर्च के लिये ख़रीद लिये। अब तो लोगों को अन्न मुहाल हो गया। पहले तो लोगों ने कुछ दिनों तक एक ही बेला भोजन किया, फिर एक ही बेला आधा पेट खाकर बिताया, इसके बाद दोनों बेला उपवास करने लगे। चैत में थोड़ी बहुत रबी पैदा हुई सही पर वह भी सबके खाने भरको न हुई। इतने पर भी सरकारी तहसीलदार मुहम्मद रजा खाँ ने इसी मौके को अपनी खैरख्वाही दिखलाने के लिये अच्छा समझा और एकबारगी दस रुपया सैकड़ा लगान बढ़ा दिया। सारे बंगाल में घोर हाहाकार मच गया।

पहले तो लोगों ने भीख मांगनी शुरू की, पर भीख मिलनी भी मुश्किल हो गयी। कौन किसे भीख देता? सब लगे उपवास करने। धीरे-धीरे लोग बीमार पड़ने लगे। लोगों ने