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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१२

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पहला परिच्छेद

गाय गोरू बेंच दिये, हल-बैल बेंच दिये, बीज के अन्न खा डाले घर द्वार बेंच डाला, जगह-जमीन भी बेंच दी। इसके बाद लड़की बेचना शुरू किया। फिर लड़के बिकने लगे। अन्त में स्त्री बेचने की भी नौबत आ पहुँची। पर लड़का-लड़की और स्त्री भी कोई कहाँ तक खरीदे! खरीदारों का ही टोटा हो गया। सब बेचने को ही तैयार नज़र आने लगे। अन्न न मिलने पर लोग पेड़ के पत्ते नोच नोचकर खाने लगे। उससे हटे, तो घास खाने लगे। जङ्गली पेड़-पौधों पर दिन काटने लगे। नीच और जङ्गली लोग तो कुत्तों, बिल्लियों और चूहों को मार-मारकर खाने लगे। बहुत से आदमी देश छोड़कर भाग गये, पर वे विदेश में ही अन्न के अभाव-से मर गये। जो नहीं भागे, उनमें से कितने अखाद्य भोजन से भूखे रहने के कारण रोगी होकर प्राण-त्याग करने लगे।

मौका पाकर रोगों ने जोर पकड़ा। ज्वर, हैजा, क्षयी और चेचक का प्रकोप बढ़ गया। खासकर चेचक का तो बहुत ही जोर हुआ। घर घर में चेचक से मौत होने लगी। कौन किसे जल देता है? कौन किसे छूने जाता है? न कोई किसी की चिकित्सा करता है, न किसी को देखने जाता है, मरने पर कोई लाश उठाने वाला भी नहीं मिलता। लाशें घर में पड़ी पड़ी सड़ने लगीं। जिस घर में चेचक प्रवेश करती, उस घरके लोग डरके मारे रोगी को छोड़कर भाग जाते। इस ग्राम में महेन्द्र सिंह बड़े धनी थे। पर आज धनी-निर्धन सब एक ही भाव हो रहे हैं। इसी दु:ख की घड़ी में व्याधि-ग्रस्त हो, उनके सभी आत्मीय-स्वजन और दास-दासी उन्हें छोड़कर चल दिये। कोई मर गया, कोई भाग गया। आज उनके बहुत बड़े परिवार में केवल उनकी स्त्री, एक छोटी कन्या और स्वयं वे रह गये हैं। इस समय हम उन्हीं का हाल लिखते हैं।

उनकी पत्नी कल्याणी ने, लजा छोड़, गोशाला में जाकर स्वयं अपने हाथों दूध दूहा। उसे गरमकर कन्या को पिलाया