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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१२६

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चौथा परिच्छेद


अधर्मका कांटा निकाल फेंका था। छिः पापी, दुराचारी, ब्रह्मचारी! तुमने मुझे मरनेसे क्यों बचाया?"

भवा०-"मैंने जो प्राण तुम्हें लौटा दिये, उन्हें मेरी ही थाती समझ लो और बोलो, तुम उन्हें मेरे हवाले कर सकती हो?"

कल्याणी-"अच्छा, यह तो कहिये, आपको मेरी सुकुमारी का कुछ हाल मालूम है या नहीं?"

भवा०-"बहुत दिनोंसे कुछ नहीं मालूम। जीवानन्द बहुत दिनोंसे उधर गये ही नहीं।"

कल्याणी-"तो क्या आप मुझे उसका संवाद नहीं ला दे सकते? स्वामी भलेही छूट जायं; पर जीते जी कन्याको क्यों छोड़ूं? अगर इस समय सुकुमारीको पा जाऊं, तो यह जीवन कुछ सुखमय हो सकता है। पर आप मेरे लिये इतना तरद्दुद क्यों उठाने लगे?"

भवा०-"क्यों नहीं उठाऊंगा? कल्याणी! मैं तुम्हारी लड़की ला दूंगा, पर इसके बाद?"

कल्याणी-“इसके बाद क्या?"

भवा०-"स्वामी?"

कल्याणी- “उन्हें तो मैंने जान बूझकर छोड़ दिया है।"

भवा०-“यदि उनका व्रत सम्पूर्ण हो जाय?"

कल्याणी-"तब उन्हींकी होकर रहूंगी। वे क्या जानते हैं, कि मैं मरी नहीं हूं?"

भवा०-"नहीं।"

कल्याणी-“क्या आपसे उनकी देखादेखी नहीं होती?"

भवा०-"होती है।"

कल्याणी-“मेरी कुछ बात नहीं चलती?"

भवा०—“नहीं, जो स्त्री मर गयी, उससे स्वामीका नाता ही क्या रह गया?"

कल्याणी- आप क्या कह रहे हैं?"