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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१२५

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आनन्द मठ


भवा०-"तुम बारबार यह बात क्यों पूछती हो? वे तो तुम्हारे लिये मरे हुएके बराबर हैं।"

कल्याणी--“मैं उनके लिये मर गयी हूं सही; पर वे मेरे लिये कभी नहीं मर सकते।"

भवा०-“वे तुम्हारे लिये मरे तुल्य हो जायंगे, यही सोचकर तो तुमने अपनी जान दी थी। फिर बार बार वही बात तुम क्यों पूछती हो?"

कल्याणी-"मरनेसे ही क्या सम्बन्ध टूट जाता है? कहिये, वे कैसे हैं?"

भवा०-"अच्छे हैं।"

कल्याणी...“कहां हैं; पदचिह्नमें?"

भवा०-"हाँ वहीं है।"

कल्याणी-"क्या कर रहे हैं?"

भवा०-" जो करते थे, वही करते हैं। किला और हथियार तैयार करा रहे हैं। उन्हींके बनाये हुए अस्त्रोंसे आजकल सहस्त्र-सहस्त्र सन्तान सजित हो रहे हैं। उनके प्रतापसे तोप, बन्दूक, गोला, गोली और बारूदका हमलोगोंको अभाव नहीं है। सन्तानोंमें आजकल वेही श्रेष्ठ समझे जाते हैं वे हमलोगोंका बड़ा उपकार कर रहे हैं दाहिने हाथ बन रहे हैं।"

कल्याणी-“मैं यदि प्राण-त्याग नहीं करती, तो वे इतना थोड़े ही कर सकते थे। जिसकी छातीमें कच्चा घड़ा बंधा होता है, वह थोड़े ही भवसागर पार हो सकता है? जिसके पैरों में जंजीर पड़ी होती है वह थोड़ेही दौड़ सकता है? सन्यासी, तुमने इस क्षुद्र जीवनको क्यों बचाया था?"

भवा०-"स्त्री सहधर्मिणी, पतिके धर्मों में सहायक होती है।"

कल्याणी–“छोटे छोटे धर्मोंमें। बड़े बड़े धर्मो तो वह कण्ठक ही प्रमाणित होती है। मैंने विषकण्टक द्वारा उनके