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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१२९

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पांचवां परिच्छेद

भवानंद सोचते विचारते मठकी ओर चले। जाते ही जाते रात हो गयी। वे अकेले थे। अकेले ही जङ्गलमें घुसे। वनमें घुसनेपर उन्होंने देखा कि कोई उनके आगे आगे चला जा रहा है। भवानंदने पूछा,--"कौन जा रहा है?"

आगे जानेवालेने कहा--"अगर तुम्हें पूछना आता, तो ठीकसे जवाब भी देता। यही समझ लो, कि मैं पथिक हूं भवा०--"बन्दे।"

आगे जानेवाला बोला-"मातरम्।”

भवा०-“मैं हूं, भवानंद गोस्वामी।"

आगे जानेवाला-"मैं भी धीरानन्द है।"

भवा-“कहां गये थे, धीरानन्द?”

धीरा-आपहीकी खोज में।"

भवा०-"क्यों? किसलिये?"

धीरा-“एक बात कहनी थी।"

भवा-"कौनसी बात?"

धीरा-“एकांतमें कहनेकी बात है।"

भवा०-"यहीं कहो न, यहां तो और कोई नहीं है।"

धीरा०-"आप नगरमें गये थे?"

भवा०-"हां"

धीरा-“गौरी देवीके घरपर?"

भवा०—“तुम भी गये थे क्या?"

धीराo-"वहां एक बड़ी ही सुन्दरी युवती रहती है।"

भवानन्द कुछ आश्चर्य में पड़ गये, साथ ही कुछ डर भी गये बोले,-"यह कैसी बातें कर रहे हो?"

धीरा०-"आपने उससे मुलाकात की थी न?”

भवा-"फिर क्या हुआ?"