पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१३२

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छठा परिच्छेद

ली और बोले,—"धीरानन्द! तुम युद्ध करो। मैं तुम्हें मार डालूंगा। मैं इन्द्रियोंका दास होकर भले ही रहूं; पर विश्वासघातक होकर नहीं रह सकता। तुम मुझे विश्वासघातक बनने की सलाह दे रहे हो और आप भी विश्वासघातक हो रहे हो, इसलिये तुम्हें मार डालनेसे मुझे ब्रह्महत्याका पाप नहीं लगेगा। मैं तुम्हें जरूर मार डालूंगा।"

बात पूरी होते न होते धीरानन्द बेतहाशा भाग चला। भवानन्दने उसका पीछा नहीं किया। वे कुछ देरतक अनमनेसे रहे, पोछे उसे बहुत ढूँढ़ा; पर कहीं पता न लगा

 

 
छठा परिच्छेद

मठमें न जाकर भवानन्द घने जङ्गलमें चले गये। उस जंगल में एक पुरानी इमारत भग्नावशेष अवस्थामें पड़ी थी। टूटी फूटी ईटोंके ढेरपर जङ्गली लताएं और पौधे बहुतायतसे उग गये थे। वहां असंख्य सर्प रहते थे। उस खंडहरके अन्दर कुछ साफ सुथरी और साबित एक कोठरी थी। भवानन्द वहीं जाकर बैठ गये और सोचने लगे।

घोर अंधेरी रात है। उसपर लम्बाचौड़ा और घना जङ्गल, जिसमें आदमीका पूत भी नहीं और वह वृक्ष-लताओंके मारे ऐसा बीहड़ हो रहा है, कि बेचारे जङ्गली पशु भी उसके अन्दर जानेका रास्ता नहीं पाते। वह वन अतिविशाल जनशून्य, अन्धकार, दुर्भेद्य और नीरव है। रह रहकर केवल बाघका गरजना अथवा जंगली पशुओंका भूख या डरसे तड़पना और चीत्कार सुनायी पड़ जाता है। कभी कभी किसी बड़े पक्षोके पंख फड़फड़ानेका शब्द सुनाई देता है और कभी कभी आपसमें