सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३०
आनन्द मठ

एक दूसरेको मारनेवाले या खा जानेवाले जानवरोंकी दौड़-धूप-का शब्द सुनाई देता है। उस निर्जन, अन्धकारपूर्ण खंडहरमें अकेले भवानन्द बैठे हैं। उनके लिये पृथ्वी मानों रही नहीं गयी। अथवा केवल उपादानमयी हो रही है। उस निविड़ अन्धकारमें भवानन्द हथेलोपर सिर रखे सोच रहे हैं—वे ऐसी प्रगाढ़ चिंतामें निमग्न हो रहे हैं, कि न तो उनकी देह हिलती है, न जोर जोरसे सांस चलती है, न किसी बातका भय मालूम होता है। वे मन-ही-मन कह रहे हैं,—"जो होनेवाला है, वह तो होकर ही मैं भागीरथीकी जलतरंगके पास आकर भी छोटेसे हाथीके बच्चे की तरह इन्द्रियस्रोतमें डूब मरा, इसी का बड़ा भारी दुःख रहा। एक क्षणमें यह देह मिट्टीमें मिल जा सकती है। देहका ध्वंस होते ही इन्द्रियोंका ध्वंस हो जायेगा। फिर मैं इन्द्रियोंके वशमें क्यों गया? मेरा मरना ही ठीक है। धर्म-त्यागी कहलाकर जीना! राम राम! मैं तो अब मरूंगीही।"

इसी समय ऊपरसे उल्लू बोल उठा। भवानन्द और जोरसे कह उठे—"ओह! यह कैसा शब्द है! कानोंको ऐसा लगा, मानों यम मुझे पुकार रहा है। मैं नहीं जानता, किसने यह शब्द किया, किसने मुझे पुकारा, किसने मुझे यह उपदेश दिया, किसने मुझे मरनेको कहा। पुण्यमयी अनन्ते! तुम शब्दमयी हो; पर तुम्हारे शब्दका मर्म तो मैं समझ नहीं सकता। मुझे धर्ममें मति दो, पापसे दूर करो। हे गुरुदेव! ऐसा आशीर्वाद करो, जिसमें धर्म में मेरी मति सर्वदा बनी रहे।"

इसी समय उस भीषण वनमें अत्यन्त मधुर, गम्भीर और मर्मभेदी मनुष्य कण्ठ सुनाई पड़ा। मानों किसीने कहा,—"मैं आशीर्वाद करता हूं, कि तुम्हारी मति धर्म में अविचल भावसे बनी रहे।

भवानन्दके शरीरके रोंगटे खड़े हो गये। यह क्या? यह तो