गुरुदेवका ही कण्ठ-स्वर है! बोले,—"महाराज! हैं? आइये, आकर इस दासको दर्शन दीजिये।"
पर न तो किसीने दर्शन दिये, न उत्तर दिया। भवानन्दने बार बार पुकारा; पर कोई न बोला। उन्होंने इधर उधर बहुत ढूंढा; पर कहीं किसीको न पाया।
रात बीती, प्रभात हुआ और प्रातःकालके सूर्य उदित होकर जंगली पेड़-पौधोंकी हरी-हरी पत्तियोंपर अपनी किरणें फैलाने लगे, तब भवानन्द वहांसे चलकर मठमें पहुंचे। उस समय उनके कानोंमें “हरे मुरारे! हरे मुरारे!" की ध्वनि सुनाई पड़ी। सुनते ही वे पहचान गये कि यह सत्यानन्दका कण्ठस्वर है। वे समझ गये, कि प्रभु लौट आये हैं।
जीवानन्दके कुटीसे बाहर चले जानेपर शांति फिर सारंगी की सुरीली ध्वनिके साथ अपना मीठा गला मिलाकर गाने लगी—
"प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदं
विहितवहिवचरित्रमखेदम्।
केशव धृत मीन शरीर,
जय जगदीश हरे!"
गोस्वामी जयदेव विरचित राग, ताल, लययुक्त स्तोत्र; शान्तिदेवीके कण्ठसे निकलकर उस अनन्त काननकी अनन्त नीरवतांको भेदकर वर्षाकालकी उमड़ी हुई नदीकी मलयानिलसे चञ्चल की हुई तरङ्गोंके समान मधुर मालूम होने लगा, तब उसने फिर गाया—