यह सुन, सबसे आगे घोड़ेपर सवार जीवानन्दने कहा "चलो, आओ।"
बस, वे दसों हजार सन्तान, कोई पैदल और कोई घोड़े पर सवार हो, जीवानन्दके पीछे-पीछे चले। पैदल चलनेवालोंके कन्धे पर बन्दूक, कमरमें तलवार और हाथमें भाला था। जंगलसे बाहर निकलते ही लगातार उनपर गोले बरसने लगे, जिससे वे छिन्न-भिन्न होने लगे। अनेक सन्तान तो बिना लड़े-भिड़े ही मारे गये। एकने जीवानन्दसे कहा-“जीवानन्द! व्यर्थ इतने आदमियोंकी जाने लेनेसे क्या लाभ है?"
जीवानन्दने धूमकर देखा कि भवानन्द हैं। जीवानन्दने कहा-"तुम्हीं कहो, क्या करूँ?
भवा०-"जंगलके भीतर, पेड़ोंके झुरमुटमें छिपकर, हम अपनी जान भी बचा सकते हैं और बहुत देरतक युद्ध भी कर सकते हैं। नहीं तो सरपट मैदानमें बिना तोपके ये सन्तान तोपोंके सामने घड़ीभर भी न ठहर सकेंगे।"
जीवा०-"तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, पर प्रभुकी आज्ञा है कि तोपें छीन लो। इसलिये हमलोग तो छीननेके लिये अवश्य ही आगे बढ़ेंगे।"
भवा०-"भला किसका सामर्थ्य है, जो उनसे तो छीन लेगा? खैर, यदि जाना ही है तो तुम चुपचाप बैठो। मैं ही जाता हूं।"
जीवा०-"नहीं भवानन्द! यह नहीं होनेका। आज मेरे मरनेका दिन है।"
भवाo--"नहीं, आज मेरे मरनेका दिन है।"
जीवा--"मुझे तो प्रायश्चित्त करना है।"
भवा०-"नहीं, नहीं, तुम्हें तो पाप छू भी नहीं गया, तुम्हारा प्रायश्चित्त कैसा? मेरा चित्त कलुषित है। मुझे ही मरने दो। तुम रहो, मैं जाता हूं।"