सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४३
दसवां परिच्छेद


सहज ही मार डालेंगे। बस, उन्होंने अपने बचे-खुचे सिपाहियोंको पुकारकर कहा, “देखो ये जो थोड़ेसे दुश्मनके सिपाही बचे हैं, उन्हें मारकर ढेर कर दो, तो मैं जीवानन्दकी सहायताको चल पड़। बोलो, एक बार प्रेमसे बोलो-"जय जगदीश, हरे!” यह सुनते ही वह थोड़ीती सन्तान-सेना, 'जय जगदीश' का शोर मचाती दुई कप्तान टामसके ऊपर भूखे बाघकी तरह टूट पड़ी; उस आक्रमणकी उग्रता वे थोड़ेसे सिपाही और तिलङ्गे न सह सके, सबके सब नष्ट हो गये। भवानन्दने स्वयं आगे बढ़कर कप्तान टामस के सिरके बाल पकड़ लिये। कप्तान अन्ततक प्राणपणले लड़ता रहा। भवानन्दने कहा-“कप्तान साहब! मैं तुम्हें नहीं मारूंगा, क्योंकि अंगरेजोंसे हमारी कोई शत्रुता नहीं है। तुम भला इन मुसलमानों की सहायता करनेके लिये क्यों आये हो? जाओ, मैं तुम्हें प्राणदान देता हूं, पर इस समय तो तुम हमारे बन्दी होकर रहोगे। भगवान् अङ्गरेजोंका भला करें, हमलोग तुम्हारे दोस्त ही हैं, दुश्मन नहीं।"

यह सुन कप्तान टामसने भवानन्दको मारनेके लिये अपनी खुली साङ्गीन उठानी चाही, पर भवानन्दने उसे ऐसा शेरकी तरह अपने पंजे में पकड़ रखा था कि वह सिर भी न हिला सका। भवानन्दने अपने साथियोंसे कहा- इसे बाँध लो।" बस, दो-तीन सन्तानोंने आगे बढ़कर कप्तान टामसको बाँध डाला। भवानन्दने कहा-“इसे एक घोड़ेपर लाद लो और इसको साथ लिये हुए जीवानन्दकी सहायताके लिये चलो।"

तब उन अल्पसंख्यक सन्तानोंने कप्तान टामसको एक घोड़ेकी पीठपर लाद लिया और “वन्देमातरम्' गीत गाते हुए वाटसनकी खोजमें चल पड़े।

उधर जीवानन्दकी सेनाके दिल टूट रहे थे और वह भागने का मार्ग ढूँढ़ रही थी। जीवानन्द और धीरानन्दने उन्हें समझा-बुझाकर रोक रखना चाहा, पर सबको भागनेसे न रोक सके