पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४५
ग्यारहवां परिच्छेद


यह कह तीनों व्यक्ति तलवारें चमकाते हुए उस तोपके पास पहुंचे और गोलन्दाज सिपाहियोंको मार मार कर ढेर करने लगे। अन्य सन्तानगण भी उनकी मददको आ पहुंचे। तोप भवानन्दके हाथमें चली आयी। तोप कब्जे में कर, भवानन्द उसके ऊपर चढ़ गये और ताली बजाते हुए बोले-“बोलो वन्देमातरम्।" सब-के-सब 'वन्दे मातरम्' गाने लगे। भवानन्दने कहा-“इस तोपको घुमाकर अब इन सबोंकी खबर लेनी चाहिये।”

यह सुनते ही सन्तानोंने तोपका मुंह फेर दिया। फिर तो वह तोप उच्च नाद करती हुई वैष्णवोंके कानों में हरिनाम गुंजाने लगी। उसकी बाढ़के सामने सिपाहो ढेर होने लगे। भवानन्द उस तोपको खींच खांचकर पुलके मुंहपर ले आये और बोले" तुम दोनों कतारबन्दी करके सन्तान-सेनाको पुलके उस पार ले जाओ, मैं अकेला ही इस व्यूहद्वारको रक्षा करूंगा। तोप चलानेके लिये मेरे पास थोड़ेसे गोलन्दाज सिपाही छोड़ जाओ।"

बील चुने हुए जवान भवानन्दके पास रह गये और असंख्य सन्तान-सेना पुल पारकर जीवानन्द और धीरानन्दके आज्ञानुसार कतार बाँधे आगे बढ़ी। अकेले भवानन्द उन बीस जवानों की सहायतासे, एक ही तोपसे बहुत सिपाहियोंको जहन्नुमकी राह दिखलाने लगे। पर यवन-सेना भी ज्वारके समय लगातार उठती हुई तरङ्गोंके समान ही बढ़ती गयी और भवानन्दको चारों ओरसे घेरकर हैरान करने लगी। वे उन तरंगोंमें पड़कर डूबने लगे। पर भवानन्द न तो थकनेवाले थे, न हारनेवालेवे बड़े ही निडर थे। वे भी तोप दाग दाग कर कितने ही सैनिकोंको नष्ट करते चले गये। यवनगण आँधीसे उठती हुई तरङ्गोंकी तरह उनपर हमला करने लगे; पर वे बीसों जवान पुलका मोहड़ा रोके ही रहे। वार-पर-वार होनेपर भी वे न हटे और यवन पुलपर न पहुंच सके। वे वीर मानों अजेय थे। उनका जीवन मानों अमर था। इस अवसरमें दल-के-दल सन्तान

१०