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आनन्द मठ


उसपर पहुंच गये। थोड़ी देर में सारी सन्तान सेना पुल पार कर जाती; पर इसी समय न जाने किधरसे नयी नयी तो गरज उठीं। अरररर धांयकी आवाज होने लगी। दोनों ही दल थोड़ी देर हाथ रोककर देखने लगे, कि ये तो कहांसे दागी जा रही हैं। उन्होंने देखा, कि जंगलके भीतरसे कितने ही देशी सिपाही तोपें दागते हुए चले आ रहे हैं। जंगलसे निकलकर सत्रह बड़ीबड़ी तो एक साथ ही हे साहबके दलपर आग बरसाने लगीं। घोर शब्दसे जंगल और पहाड़ गूंज उठे। सारा दिन लड़ते-लड़ते थकी हुई यवनसेना प्राणोंके भयसे काँप उठी। उस अग्निवर्षाके आगे तिलङ्ग, मुसलमान और हिन्दुस्तानी सिपाही सभी भागने लगे। केवल दो-चार गोरे खड़े-खड़े जूझ रहे थे।

भवानन्द तमाशा देख रहे थे। उन्होंने कहा-“भाइयो! देखो, वे वींटीकटे भागे जा रहे हैं। चलो, एकबार ही उनपर टूट पड़ो।” तब चोटियोंके दलको तरह कतार बाँधे हुई सन्तानसेना नये उत्साहसे पुलके इस पार आकर यवनोंपर आक्रमण करने लगी। वह अकस्मात् यवनोंपर टूट पड़ी। उन बेचारोंको युद्ध करनेका मौका ही न मिला। जैसे गङ्गाको तरङ्ग पद्धताकार मतवाले हाथीको बहा ले जाती हैं, वैसे ही सन्तानगण यवनोंको बहा ले चले। मुसलमानोंने देखा कि पीछे तो भवानन्दकी पैदल सेना है और सामने महेन्द्रकी बड़ी-बड़ी तोपे गरज रही हैं।

अब तो हे साहबने देखा कि सर्वनाश उपस्थित है। उनकी सारी सुध-बुध जाती रही-बल, वीर्य, साहस, कौशल, शिक्षा, अभिमान-सबका दिवाला निकल गया। सारी फौजदारी, बादशाही, अंगरेजी, देशी, विलायती, काली और गोरी सेना गिर गिर कर जमीन चूमने लगी। विधर्मियोंका दल भाग चला। जीवानन्द और धीरानन्द 'मार मार' करते हुए विधर्मी सेनाके पीछे दौड़ पड़े। सन्तानोंने उनकी कुल तोपें छीन लीं। बहुतसे अंगरेज़ और देशी सिपाही मारे गये। सर्वनाश समीप आया देख,