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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१५५

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आनन्द मठ


कहा--"हम सब आपको प्रणाम करते हैं। महाराजाधिराज! यदि आपकी आज्ञा हो, तो कहिये, हमलोग इसी जङ्गल में आपका सिंहासन स्थापित करें।"

सत्यानन्दने जीवनमें आज पहली ही बार क्रोध प्रकाश किया था। बोले-“क्या तुमलोग मुझे भी ढोंगी साधु समझते हो? हमलोग राजा नहीं संन्याली हैं। इस समय इस देशके राजा स्वयं भगवान् वैकुण्ठनाथ हैं। नगरपर अधिकार हो जानेपर तुम लोग जिसे चाहना उसे राजमुकुट पहना देना, पर यह निश्चय समझ रखो, कि मैं इस ब्रह्मचर्याश्रमको छोड़कर और किसी आश्रमको नहीं स्वीकार कर सकता। जाओ, अपना-अपना काम देखो।"

यह सुन, वे चारों आदमी ब्रह्मचारीको प्रणामकर उठ खड़े हुए। तब औरोंकी नजर बवाकर सत्यानन्दने महेन्द्रको ठहरनेका इशारा किया। अन्य तीनों व्यक्ति तो चले गये, महेन्द्र रह गये। तब सत्यानन्दने महेन्द्रसे कहा-"तुम सबने विष्णु-मण्डपमें शपथ करके सन्तान वर्म ग्रहण किया था। भवानन्द और जीवानन्द, दोनोंने ही अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग कर डाली। भवानन्दने तो अपने कहे मुताबिक अपने पापका प्रायश्चित्त कर डाला, अब मुझे डर है, कि कहीं जीवानन्द भो प्रायश्चित्त करनेके लिये अपने प्राण न दे डाले, पर मुझे एक ही बातका भरोसा है, जिससे वह अभी नहीं मर सकता। वह बात एकदम गुप्त है। अकेले तुमने ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी तरह निवाही है। सब तो संतानोंका काम हो गया। प्रतिज्ञा तो उसी दिनतकके लिये थी, जबतक सन्तानोंका काम न हो जाता। अब कार्योद्धार हो गया। है, इसलिये मैं चाहता हूं कि तुम फिरसे गृहस्थ बन जाओ।"

महेन्द्रकी आंखोंसे लगातार आंसू चलने लगे। वे बोले-"महाराज! अब मैं किसको लेकर फिरसे गृहस्थ बनूँ? स्त्रीने प्राण दे ही दिये, कन्याका कुछ पता ही नहीं, कि किधर गयी।