पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१५४

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बारहवां परिच्छेद

सत्यानन्दने कहा- "इतने दिनोंतक हम-लोग जिस व्रतके लिये अपना सब कर्म-धर्म और सुख-आराम छोड़ बैठे थे, वह पूरा हो गया। अब यहाँ यवन-सेनाका नाम-निशान भी न रहा, जो बाकी बचे हैं वे एक क्षण भी हमारे सामने न ठहर सकेंगे अब तुम लोगोंकी क्या राय है?"

जीवानन्दने कहा-"अब यहाँसे चलकर हमें राजधानीपर अधिकार जमाना चाहिये।"

सत्या०-"मेरी भी यही राय है।"

धीरा-"पर आपके सिपाही कहां हैं?"

जीवा०-"क्यों? यहीं तो हैं।"

धीरा०—“कहां हैं? कोई नज़र भी आता है?"

जीवा०-"सब लोग जहां-तहां विश्राम कर रहे हैं। डङ्का बजाते ही सब इकट्ठे हो जायंगे।"

धीरा०-“एकका भी पता नहीं लगेगा।"

सत्या०-"क्यों?"

धीरा०-"सब लूटपाट करने चले गये हैं। इस समय गांवोंकी रक्षाका कोई प्रबन्ध नहीं है। मुसलमानोंके गांवों और रेशमकी कोठियोंको लूटपाटकर सबके सब घर चले जायंगे। इस समय आप किसीको नहीं पायेंगे। मैं खोज ढूढ़ कर बैठा हूँ।"

सत्यानन्द उदास होकर बोले-“जो हो, अब तो यह सारा प्रदेश हमारी मुट्ठीमें आ गया। अब यहां और कोई ऐसा नहीं जो हमारे विरुद्ध उठ खड़ा हो इसलिये तुम लोग वीरभूमिमें सन्तानराज्यका झण्डा खड़ा करो, प्रजासे कर वसूल करो और नगरपर अधिकार करनेके लिये सेनाका संग्रह करते रहो। हिंदुओंका राज्य हुआ है, यह सुनते ही बहुतसे सैनिक हमारे झंडेके नीचे चले आयंगे।

तब जीवानन्द आदि सब लोगोंने सत्यानन्दको प्रणाम कर