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आनन्द मठ


बन्द सिपाही बड़ी सावधानीसे पहरा देने लगे। सब लोग रात-रातभर जागे जागे रहते और प्रत्येक क्षण आगन्तुक विपत्तिकी सम्भावनाले कांपते रहते। हिन्दू लोग कहने लगे-"आये, संन्यासी बाबा लोग आयें तो सही-मां दुर्गा करें, वह दिन शीघ्र देखना नस्लीव हो।" मुसलमान कहने लगे-“या खुदा! इतने दिनों बाद क्या आज कुरानशरीफ झूठा हो गया? हम पांव वक्त नमाज़ पढ़ते हैं, तोभी इन माथेमें चन्दन लगानेवाले हिन्दुओंको न हरा सके। दुनियामें किसी बातका भरोसा नहीं है।"

इसी तरह किसीने रोते हुए और किसीने हंसते हुए वह रात बड़ी घबराहटके साथ बितायी।

यह सब बातें कल्याणोके कानोंमें भी पड़ी; क्योंकि यह बातें तो इस समयतक औरत, मर्द, बच्चे सबके कानोंतक पहुंच चुकी थीं। कल्याणीने मन-ही-मन कहा-"जय जगदीश्वर! आज तुम्हारा कार्य सम्पूर्ण हो गया। अब आज ही मैं अपने स्वामीको देखने जाऊंगी। हे मधुसूदन! आज तुम मेरे सहायक बनो।"

अधिक रात बीतनेपर कल्याणी शय्या छोड़कर उठी और चुपचाप खिड़की खोलकर देखने लगी। जब उसने कहीं किसीको न देखा, तब चुपकेसे धीरे धीरे गौरी देवीके मकानके बाहर आयी, उसने मन-ही-मन इष्टदेवताको याद कर कहा,-"प्रभो! ऐसा करना, जिसमें पदचिह्न पहुंचकर मैं उन्हें देख सकूं।"

कल्याणी नगरके द्वारके पास आ पहुंची। वहाँ पहरेवालेने पूछा-“कौन जा रहा है?” कल्याणीने डरते-डरते कहा-“मैं स्त्री हूं।" पहरेवालेने कहा-“जानेका हुक्म नहीं है।" बात दफादारके कानमें पड़ी; उसने कहा-“बाहर जानेकी मनाई नहीं है, भीतर जानेको रोक है।" यह सुन, पहरेवालेने कल्याणी- से कहा,-"जाओ माई! चले जाओ, बाहर जाने की मनाई नहीं है। पर आजकी रात बड़ी आफ़तकी है। माता! रास्तेमें क्या हो जाय। कौन जाने, कहीं तुम्हें डाकुओं के