पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१५९

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पहला परिच्छेद


हाथमें पड़ जाना पड़े या गड्ढे में गिरकर प्राण गंवाने पड़े। आजकी रात तो माईजी! तुम कहीं न जाओ।"

कल्याणीने कहा, "बाबा! मैं भिखारिन हूं। मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। डाकू मुझसे कुछ न बोलेगें।"

पहरेवालेने कहा-"माँ! अभी तुम्हारी नयी उमर है। भरी जवानी है। दुनियामें इससे बढ़कर धन-दौलत कुछ भी नहीं है। इसके डाकू तो हम भी हो जा सकते हैं।” कल्याणीने देखा कि यह तो बड़ी विपद् आयी! इससे बिना कुछ कहे-सुने, चुपचाप वहांसे दबे पांवों खिसक पड़ी। पहरेवालेने देखा, उसकी माईजीने तो उसकी दिल्लगीका मतलब ही नहीं समझा। इससे उसके दिलको बड़ी चोट पहुँची। दुःख भुलानेके लिये उसने गांजेका दम लगाया और राग झिंझोटी खम्माचमें सोरी मियाँका टप्पा गाना शुरू किया। कल्याणी चली गयी।

उस रातको रास्ते में दल-के-दल पथिक नज़र आ रहे थे। कोई 'मारो मारो' कह रहा था, कोई 'भागो भागो' के नारे बुलन्द कर रहा था। कोई रो रहा था, कोई हंस रहा था। जो जिसे देख पाता, वह उसीको पकड़ने दौड़ता था। कल्याणी बड़े चक्करमें पड़ी। एक तो राह नहीं मालूम, दूसरे, किसीसे कुछ पूछने लायक भी नहीं; क्योंकि सभी लड़नेको ही तैयार नज़र आते थे। वह लुक-छिपकर अंधेरेमें रास्ता चलने लगी; पर हजार छिप-छिपकर चलनेपर भी वह एक अत्यन्त उद्धत विद्रोही-दलके हाथमें पड़ ही गयी। वे शोर-गुल मचाते हुए उसे पकड़नेको लपके। कल्याणी दम साधे हुए भाग चली और जङ्गलके भीतर घुस गयी। वहांतक एक दो डाकुओंने उसका पीछा किया। एकने उसका आँचल पकड़कर कहा- “अब कहो, प्यारी!” इसी समय अकस्मात् किसोने पीछेसे आकर उस दुष्टको एक लाठी मारी। वह मार खाकर पीछे हट गया। इस व्यक्तिका वेश संन्यासियोंका सा था। छाती काले