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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१६१

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दूसरा परिच्छेद

शान्तिने कहा-"क्यों, क्या महेन्द्रको खोजने चली हो?"

कल्याणीने कहा-"तुम कौन हो? देखती हूं कि तुम्हें तो सब कुछ मालूम है?"

शान्तिने कहा, "मैं ब्रह्मचारी हूं, सन्तान सेनाका अधिनायक हूं, बड़ा भारी वीर पुरुष हूं। मुझे सब कुछ मालूम है। आज रास्तेमें सिपाही और सन्तान दोनों ही ऊधम मचाये हुए। आज तो तुम पदचिह्न नहीं जा सकोगी।"

कल्याणी रोने लगी। शान्तिने आँखें नचाकर कहा-"डरने की क्या बात है? हमलोग नयनवाण चलाकर ही शत्रु-वध किया करती हैं। चलो, अभी पदचिह्न चलें।"

कल्याणीने ऐसी बुद्धिमती स्त्रीकी सहायता पाकर समझा, मानो उसे हाथों स्वर्ग मिल गया। वह बोल उठी-"चलो, तुम मुझे जहाँ ले चलोगी, वहीं चलूंगी।"

तब शान्ति कल्याणीको साथ लिये हुई जंगली रास्तेसे जाने लगी।




दूसरा परिच्छेद

जिस समय शान्ति अपने आश्रमसे निकलकर उस गहरी रातके समय नगरकी ओर रवाना हुई थी, उस समय जीवानन्द आश्रममें ही मौजूद थे। शान्तिने जीवानन्दसे कहा, "मैं नगकी ओर जाती हूं और शीघ्र ही महेन्द्रकी स्त्रीको लेकर आती हूँ। तुम महेन्द्रसे कह रखना कि उसकी स्त्री जीती है।"

जीवानन्दने भवानन्दसे कल्याणीके जी उठनेकी बात सुन रखी थी। सब स्थानोंमें घूमने-फिरनेवाली शान्तिसे उन्हें इस