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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१६३

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तीसरा परिच्छेद


इधर-उधर देखने लगी। इसके बाद उसकी नाक-भौं चढ़ गयी और वह रो पड़ी। फिर बोली--"मैं तो लड़की नहीं दूंगी।"

निमाईने अपने गोल-गोल हाथोंकी कलाईसे जब आँखों के आँसू पोंछ डाले तब जीवानन्दने कहा-“बहन! रोती क्यों हो? कुछ दूर भी तो नहीं है? जब तुम्हारे जीमें आये, जाकर देख आया करना।"

निमाईने होंठ फुलाकर कहा-"अच्छा, तुम लोगोंकी लड़की है, ले जाना चाहते हो, तो ले जाओ। मुझे क्या है?" यह कहती हुई वह भीतरसे सुकुमारीको ले आयी और उसे क्रोधके साथ जीवानन्दके पास पटककर आप पैर पसारकर रोने बैठी। लाचार, जीवानन्द उस बारे में कुछ भी न कहकर इधर-उधरकी बातें करने लगे। पर निमाईका क्रोध किसी तरह कम न हुआ। वह उठकर सुकुमारीके कपड़ोंकी गठरी, गहनोंका सन्दूक, बाल बांधनेके फीते खिलौने आदि ला लाकर जीवानन्दके आगे फेंकने लगी। सुकुमारी आप ही उन सब चीजोंको सहेजने लगी। वह निमाईसे पूछने लगी-“मां! मुझे कहां जाना होगा?"

अब तो निमाईसे न रहा गया। वह सुकुमारीको गोद में लिये रोती हुई चली गयी।




तीसरा परिच्छेद

पदचिह्नके नये दुर्गमें आज महेन्द्र, कल्याणी, जीवानन्द, शान्ति, निमाई, निमाईके स्वामी और सुकुमारी जमा हैं। सुखमें पगे हुए हैं। शान्ति भी नवीनानन्दका रूप धारण किये हुए आयी है। वह जिस रातको कल्याणीको अपनी कुटियामें ले आयी थी, उसी रातको उसने कल्याणीको इस बातको ताकीद कर दी थी कि अपने स्वामीसे यह कभी न कहना कि नवीनानन्द