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आनन्द मठ


उस दिन यहीं आकर जमा होंगे, इसलिये एक ही दिन में, एक ही स्थानमें, वे सबका काम तमाम कर देना चाहते हैं। यह खबर गाँव-गाँवमें फैल गयी। फिर तो जो सन्तान जहाँ था, वह उसी क्षण वहाँसे हथियार लिये हुए मेलेकी रक्षा करनेके लिये दौड़ पड़ा। सभी सन्तान माघी पूर्णिमाके दिन नदीके तोरपर मेलेमें आ इकट्ठे हुए। मेजर-साहबका सोचना बिलकुल ठीक निकला। अंगरेजोंके सौभाग्यसे महेन्द्र भी इस फन्दे में आ पड़े। वे थोड़ेसे ही सैनिकोंको पदचिह्नमें रखकर, अधिकांश सैनिकोंकों लिये हुए मेलेमें चले आये। इन सब बातोंके पहले ही जीवानन्द और शान्ति पदचिह्नसे बाहर चले गये थे। उस समय युद्धकी कोई बात ही नहीं हुई, क्योंकि उन लोगोंकी तबियत ही लड़ाई-भिड़ाईसे फिरी हुई थी। माघी पूर्णिमाके पुण्य दिवसके अच्छे मुहूर्तमें, पवित्र जल में प्राण विसर्जन कर प्रतिज्ञा-भङ्गरूपी महापापका प्रायश्चित्त करनेका ही उनका विचार था। रास्ते में जाते-जाते उन्होंने सुना कि मेलेमें जमा हुए सन्तानोंके साथ अंगरेजी सेनासे युद्ध होगा। यह सुनकर जीवानन्दने कहा-"तब चलो, झटपट वहीं चलें। युद्धमें ही प्राण दे देंगे।"

वे जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए चले। एक जगह रास्ता एक टीलेके ऊपरसे गया था। टीलेपर चढ़कर उस वीर दम्पतिने देखा कि उसके नीचे थोड़ी ही दूरपर अंगरेजोंकी सेनाका पड़ाव है। शान्ति ने कहा- "मरनेकी बात तो अभी रहने दो---बोलो, “वन्दे मातरम्।”