पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१७

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तीसरा परिच्छेद।

जिस जङ्गलमें डाकुओंने कल्याणी को ले जाकर जमीनपर रखा वह बड़ा मनोहर था। न तो वहां प्रकाश था और न ऐसे परखया ही थे जो वहांकी शोभाको देख और समझ सकें। जिस तरह दरिद्रके हृदय के सौन्दर्यका कोई मूल्य नहीं होताउसी तरह उस वनकी शोभा निरर्थक थी। देशमें खानेको अन्न हो वा न हो, पर वह वन विकसित था, जिनकी सुगंधसे वह अन्धकार प्रकाशमय हो रहा था। वनके बीच एक साफ सुथरे और सुकोमल पुष्पोंसे भरे हुए भूमिखण्डमें डाकुओंने कल्याणी और उसकी कन्याको ला रखा था। वे उन्हें चारों ओरसे घेरकर बैठ गये और आपसमें वाद विवाद करने लगे, कि उन दोनोंका क्या करना चाहिये। कल्याणीके शरीरपरके गहने तो उन्होंने पहले ही निकाल लिये थे। कुछ डाकू उन्हींका बंटवारा करने में लगे थे। गहनोंका बंटवारा हो जानेपर एक डाकूने कहा, "भाई, हम सोना चांदी लेकर क्या करेंगे? एक गहना लेकर यदि कोई मुट्ठीभर चावल दे दे तो प्राण बचें। भूख के मारे जान निकली जा रही है। आज केवल पेड़के पत्ते खाकर रह गया हूं।" एकके मुंहसे यह बात निकलते ही सब भोजन! भोजन!! चिल्लाने लगे। हमें सोना चांदी नहीं चाहिये, भूखसे प्राण निकले जा रहे हैं। उनके सरदारने उहें समझा बुझाकर चुप कराना चाहा, पर कोई चुप न हुआ, उलटे सबके सब और जोरसे चिल्लाने और गाली बकने लगे। अन्तमें मार पीटकी नौबत आ पहुंची। जिन लोगोंको बंटवारे में गहने मिले थे, उन्होंने क्रोधमें आकर उन गहनोंको सरदारके ऊपर जोरसे फेंक मारे। सरदारने भी एक दोको खूब पीटा। तब सब मिलकर सरदारपर टूट पड़े और उसे मारने लगे। बेचारा