पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१८

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तीसरा परिच्छेद

सरदार भी कई दिनोंका भूखा था और कमजोर हो रहा था, इसलिये दो ही चार धौल धप्पेमें उसका काम तमाम हो गया। तब भूखसे पीड़ित, क्रोधित, उत्तेजित और ज्ञानशून्य डाकुओं में से एकने कहा,-"भाइयो! भूखसे प्राण निकले जा रहे हैं। स्यार कुत्तोंका मांस तो बहुत खाया, आओ, आज इसी सालेका मांस खायें।" यह सुनते ही सब “जय काली मैयाकी” कहकर जोरसे चिल्ला उठे। “बम काली! आज मनुष्यका ही मांस उड़ने दो।" यह कहकर वे सब दुबली पतली और प्रेत सदृश काली काली मूर्तियां अन्धकारमें खिल खिलाकर हंसने और ताली बजा बजाकर नाचने लगीं। एकने सरदारकी लाश भूननेके लिये आग जलानेका उपाय करना आरम्भ किया। सूखी लताएँ, लकड़ियाँ और तृण बटोरकर उसने चकमकसे आग पैदाकर उनके ढेरमें आग लगा दी। आग धीरे धोरे जलने लगी और उसके प्रकाशमें पासवाले आम, नीबू, कटहल, ताड़, खजूर और इमलीके पेड़ोंके हरे हरे पत्ते चमकने लगे। कहीं तो पत्ते उजेलेमें चमक उठे, कहीं घास पर रोशनी पड़ने लगी और कहीं अँधेरा, और भी बढ़ गया। आग खूब धधक उठनेपर एकने लाशकी टांग पकड़ी और उसे आगमें डालनेके लिये ले चला। इतने में एक बोल उठा,-"ठहर जा, यार! ठहर जा। आज नरमांस खाकर ही प्राण बचाने हैं, तो फिर इस बूढ़े की सूखी ठठरी जलाकर क्यों खायें? लाओ आज हम जिसे पकड़ लाये हैं, उसीको भूनकर खायें, उसी अल्पवयस्क बालिकाका मुलायम मांस ही खाकर प्राण बचायें।” दूसरेने कहा-“जो कुछ हो, जल्द भून डालो, बाबा! अब तो भूख नहीं सही जाती!” सभीकी जीभसे लार टपक पड़ी और सबके सब उधर ही चले जहां कल्याणी अपनी कन्याके साथ मूर्च्छित पड़ी थी। आकर सबोंने देखा कि वहां कोई नहीं है, न माँ का पता है, न बेटीका। डाकुओंको लड़ाई झगड़ेमें फंसा देख, सुयोग पाकर