पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७०
आनन्द मठ


घर पदचिह्न गांवमें है।" इधर उसी दिन मेजर-साहब पदचिह्नका हालचाल इधर-उधरसे मालूम कर रहे थे। एक सिपाहीको यह बात मालूम थी। वह वैष्णवी को लिये हुये कप्तान-साहबके पास चला गया। साहब उसे मेहर साइबके पास ले गया। मेजर साहबके पास पहुंचकर वैष्णवीने मधुर मुस्कान छोड़ते हुए, एक तिरछी चितवनका वार साहबके कलेजेपर कर उन्हें पागल बनाते हुए, खंजरी बजाकर गाना शुरू किया,-

"म्लेच्छनिबह निधने कलयसि करवालम्।"

साहबने पूछा-"क्यों वीबी! टुमारा घार कहांपर हाय?"

वैष्णवीने कहा-"मैं बीवी नहीं, वैष्णवी हूं। मेरा घर पद-चिह्न ग्राममें है।"

साहब-"हुआं एक गार हाय?"

वैष्णवी-“घर? घर तो वहां बहुतसे हैं।"

साहब-“गर नहीं, गार, गार-"

वैष्णवी-"अच्छा साहब! मैं तुम्हारे मतलबकी बात समझ गयी । तुम गढ़ की बात पूछते हो?"

साहब-"हाँय, हाय, गार, गार, गार, हाय?"

शान्ति–“गढ़ क्यों नहीं है? बड़ा भारी किला है।"

साहब-"किटना आडमी हाय?"

शान्ति-"वहां कितने आदमी रहते हैं" यह पूछते हो?

चालीस-पचास हजार होंगे।"

साहब-"नोन्सेन्स, एक केल्लामें दो-चार हजार रहने सकटा है। हुआँपर आबी हाय, इया निकाल गिया?"

शान्ति--"अब वे कहां निकलकर जायेंगे?'

साहब-“मेलामें। टुम कब आया हुआंसे?"

शान्ति-"कल आयी हूँ, साहब!”

साहब-“वह लोग आज निकाल गिया होगा।"

शान्ति मन-ही-मन सोच रही थी- साहब! यदि मैंने तेरे