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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१७१

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पांचवां परिच्छेद


बापका श्राद्ध नहीं कर डाला तो फिर मेरा वैष्णवी बनना ही व्यर्थ है। मैं देखूंगी कि तेरा सिर सियार कितनी देर में खाते हैं।"

ऊपरसे बोली-"हां, यह तो हो सकता है कि वे आज बाहर हुए हों। मैं क्या जानूं? मैं गरीब भिखमंगिन ठहरी, गीत गा-गाकर भीख मांगती-फिरती हूं, मुझे इन बातोंका क्या पता? बकते-बकते तो गला सूख गया। लाओ पैसा दो। ले-देकर चल दूं। और यदि अच्छी रकम इनाममें देना कुबूल करो तो तुम्हें परसों आकर वहांका राई-रत्तो हाल बतला जाऊंगी।"

साहबने झन्से एक रुपया निकाल शान्तिकी ओर फेंककर कहा-"परसों नहीं बीबी!"

शान्तिने कहा-“अरे जा बे मुए! बीबी क्यों कहता है?

वैष्णवी कह, वैष्णवी।"

एडवार्डिस,-"परसों नहीं, हमको आज रातको खबार मिलनी चाहिये।

शान्ति–“अबे जा अभागे! सिरके नीचे बन्दूक रख, शराब पी, कानमें तेल डाल, सो रह। आज मैं दस कोस जाऊ, दस कोस आऊ और इनको राततक खबर ला दूं। चल हट, हरामी कहींका।"

साहब-"हरामी किसको बोलटा है?"

शान्ति-"जो बड़ा वीर, भारी जर्नेल होता है।"

एड०--"ओह! हाम क्लाइवका माफिक पारी जर्नेल होने सकटा है। लेकिन आज हमको खबर मिलना चाहिये। हम टुमको एक साव रुपिया बकसीस देगा।"

शान्ति–“सौ दो, चाहे हजार दो, इन टांगोंसे तो बीस कोस चलना दुश्वार है।"

एड०-"घोरा पर चार कर जाओ।"

शान्ति- “यदि घोड़ेपर ही चढ़ना आता, तो मैं तुम्हारे खोमेमें भीख मांगने आती?"