पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१७७

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छठा परिच्छेद

जीवा०-"अच्छा; मैं वृथा ही प्राण दूंगा। लड़ाईमें ही मरूंगा।"

तब पीछे मुड़कर जीवानन्दने बड़े जोरसे ललकारकर कहा--"कौन हरिनाम लेते हुए मरना चाहता है? जो चाहता हो, वह मेरा साथ दे।"

बहुतेरे आगे बढ़ आये। जीवानन्दने कहा-"ऐसे नहीं, ईश्वरको साक्षी कर शपथ करो कि देहमें प्राण रहते पीछे पैर न देंगे।"

जो आगे बढ़े थे, वे पीछे हट गये। जीवानन्दने कहा "कोई नहीं आता अच्छा, तो मैं अकेला ही चलता हूं।"

जीवानन्दने घोड़ेपर सवार हो, बहुत दूरपर पीछे की ओर खड़े "महेन्द्रको पुकारकर कहा-“भाई! नवीनानन्दसे कहना कि मैं तो अब सदाके लिये संसारसे विदा होता हूं। उनसे परलोकमें ही मिलना होगा।"

यह कह, वह वीर पुरुष गोलियोंकी बौछारको कुछ भी परवा न कर घोड़ेको आगे बढ़ा और बायें हाथमें भाला, दाहिनेमें बन्दूक लिये, मुंहमें 'हरे मुरारे' कहते हुए आगे बढ़ा। युद्धकी कोई सम्भावना नहीं उतने बड़े साहसका कोई फल नहीं तो भी 'हरे मुरारे,' 'हरे मुरारे' कहते हुए जीवानन्द शत्रु ओंके व्यूहमें घुस पड़े!

महेन्द्रने भागते हुए सन्तानोंको पुकारकर कहा-“देखो, एक बार तुम लोगोंको लौटकर जीवानन्द गुसाई को देखना चाहिये। तुम लोगोंके पहुंच जानेसे वह प्राण न देंगे।" लौटकर कितने ही सन्तानोंने जीवानन्दकी अमानुषी कीर्ति देखी। पहले तो वे बड़ेही विस्मित हुए। इसके बाद कह उठे,-"क्या जीवा- नन्दही मरना जानता है? हम लोग नहीं जानते? चलो, हम सब ही जीवानन्दके साथ-साथ बैकुण्ठको चले चलें।"

यह बात सुन, कितने ही सन्तान आगे बढ़े। उनकी देखा