शान्ति-"उसके बाद हिमालयपर कुटी बना दोनों जने देवताकी आराधना करेंगे और यही वर मागेंगे कि हमारी माताका मङ्गल हो।”
इसके बाद दोनों जने हाथमें हाथ मिलाये उस आधीरातके समय, उस निखरी हुई चांदनीमें न जाने किधर गायब हो गये।
हाय, मां! क्या वे फिर न आयेंगे! क्या तू जीवानन्द सा पुत्र और शांति-सी कन्या फिर नहीं उत्पन्न करेगी!
सत्यानन्द महाराज बिना किसीसे कुछ कहे सुने चुपचाप रणक्षेत्र से आनन्दमठमें चले आये। वे वहाँ गम्भीर रात्रिमें विष्णु मण्डपमें बैठे ध्यानमें डूबे हुए थे। इसी समय वही चिकित्सक वहां आ पहुचे। देखकर सत्यानन्द उठ खड़े हुए और उन्होंने उन्हें प्रणाम किया। चिकित्सकने कहा-"सत्यानन्द! आज माघकी पूर्णिमा है।"
सत्या०-"चलिये, मैं तैयार हूं; पर महात्माजी! कृपाकर मेरा एक सन्देह दूर कर दीजिये। इधर ज्योंही युद्धजय हुई, सनातनधर्म निष्कण्टक हुआ, त्योंही मुझे लौट चलनेको आज्ञा क्यों दी जा रही है?"
आनेवालेने कहा-"तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया। मुसलमानोंका राज्य चौपट हो गया। अब यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है। व्यर्थमें प्राणियोंकी हत्या करनेसे क्या काम है?"
सत्या०-"मुसलमानी राज्य चौपट हुआ सही; पर हिन्दुओंका राज्य तो नहीं स्थापित हुआ? इस समय कलकत्त में अंगरेजोंका जोर बढ़ता जा रहा है।"
महात्मा-"अभी हिन्दू-राज्यको स्थापना नहीं हो सकती। तुम्हारे यहाँ रहनेसे व्यर्थ ही नरहत्या होगी, इसलिये चलो।"