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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१९३

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परिशिष्ट

संन्यासी न घुसने पायें या और तरह के लुटेरे डाकुओं का उपद्रव न होने पाये। यह सावधानी गत बार के संन्यासी विद्रोह को देखकर ही काम में लायी गयी है। जहां तक मेरा ख्याल है, थोडी सी ही सेना से यह काम हो जायगा और मुझे आशा है कि आगे से संन्यासी भी यहां उपद्रव न करने पायेंगे।"

२० मार्च १७७१ को हेस्टिंग्ज ने लारेन्स के नाम निम्नलिखित पत्र लिखा था:—

"गत वर्ष संन्यासियों ने जैसा उपद्रव किया था, वैसा ही इस वर्ष के प्रारम्भ में भी हुआ। पर चूंकि हमलोग पहले ही ले उनका सामना करने के लिये तैयार थे और उन्होंने पहले ही धक्के में खूब मुंहकी खायी, इसी से हमलोगों ने उन्हें एकदम देश से बाहर कर दिया है। हमलोगों ने कुछ घुड़सवार उनके पीछे लगा दिये हैं, जिससे वे बहुत डर गए हैं, क्योंकि पैदल सिपाहियों से तो वे दौड़ने में जीत जाते थे पर घोड़ों की बराबरी नहीं कर सकते। मेरा इरादा उन्हें उत्तर पूर्व प्रदेश से भगा देने का है, जहां उन लोगों ने अड्डा कायम कर रखा है। मैं उन जमींदारों-की भी पूरी मरम्मत कर देना चाहता हूं, जो उन्हें शरण और सहायता दे रहे हैं।"


परिशिष्ट ख
संन्यासी-विद्रोह का इतिहास
(हण्टर रचित "बंगाल के ग्रामों का इतिहास" से उद्धृत)

"कौन्सिल ने १७७३ में लिखा था—'डाकुओं का एक दल संन्यासी या फ़कीर का वेश बदाये, इन मुल्कों को तबाह करता