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आनन्द मठ

फिरता है। ये तीर्थयात्री के रूप में रहते हैं और बंगाल के प्रधान भाग को लूटते-खसोटते हैं। ये जहां जाते वहां भीख मांगकर खाते, चोरी करते, डाका डालते या जैसा मौका देखते, वैसा कर बैठते हैं। अकाल के बाद कई वर्षों तक इनके दल में वे किसान भी मिलते चले गये, जिन्हें न तो बीजके लिये अन्न मिल सका, न जमीन जोत ने के लिये हल-फावड़े मिले। १७७२ के जाड़ों में इन लोगों का प्रायः ५० हजार का दल दक्षिण बंगाल के हरे-भरे प्रदेशों में लूट-पाट मचाता और घरों को जलाता रहा। कलक्टरों ने सेना से काम लिया; कुछ सफलता भी मिली, पर अन्त में हमारे सिपाहियों की बुरी तरह हार हुई और उनका अध्यक्ष कप्तान टामस समस्त सैनिकों के साथ खेत रहा। जाडों के अन्त में कौन्सिल ने कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स के पास लिखा कि एक चतुर सेनाध्यक्ष के अधीन भेजी हुई सेना ने सफलता के साथ उनका मुकाबिला किया है। पर एक ही महीने के बाद यह मालूम हुआ कि यह सूचना भी ठीक नहीं थी। सन् १७७२ की १३वी मार्च को वारन हेसिंटग्ज को यह बात स्वीकार करनी पड़ी कि कप्तान टामस के बाद जो सेनाध्यक्ष भेजा गया था उसकी भी वही गति हुई और यद्यपि जमीन्दारों के दिये हुए जवानों के साथ-साथ चार पलटने उनके मुकाबिले खड़ी थीं तथापि संन्यासियों की कुछ हानि नहीं हुई। मालगुजारी की वसूली न हो सकी। देशवासी भी उन्हीं डाकुओं के तरफदार हो रहे और गांवों पर से हुकूमत उठ-सी गयी। इस तरह की घटनाए यहां हर साल होती रहती हैं और इसे ही लोग बंगाल का शान्तिमय जीवन बतलाते हैं!"

 

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