आज्ञा किसीसे न पाकर सिपाही कुछ देरतक भौंचकसे चुप खड़े रह गये। इसी समय तेजस्वी डाकुओंने उनमेंसे कितनोंको मार गिराया और कितनों हीको घायल कर डाला। इसके बाद गाड़ियोंके पास आ, उनपर जो रुपयेके बक्स लदे थे, उनपर अधिकार कर लिया। सिपाही हारसे हताश होकर
भाग गये।
तब वह व्यक्ति, जो टोलेके ऊपर खड़ा था और अन्तमें जिसने इस युद्धका नेतृत्व ग्रहण कर लिया था, भवानन्दके पास आकर उसके गलेसे लिपट गया। दोनों खूब गले गले मिले। भवानन्दने कहा, भाई जीवानंद ! तुम्हारा व्रत सार्थक हुआ।
जीवान'दने कहा-"भवानन्द! तुम्हारा नाम सार्थक हो।"
इसके बाद लूटकी रकमको यथास्थान पहुंचानेका भार जीवानन्दको सौंपा गया। वे अपने अनुचरोंके साथ शीघ्र ही वहांसे अन्यत्र चले गये। भवानन्द अकेले रह गये।
गाड़ीसे नीचे उतरकर महेन्द्रने एक सिपाहीका हथियार छीन लिया और युद्ध करने ही जा रहे थे कि यकाएक उन्हें यह ख्याल हो आया, कि ये लोग डाकू हैं और इन्होंने रुपये लूटने के लिये ही इन सिपाहियोंपर आक्रमण किया है। यही सोचकर वे युद्धभूमिसे हटकर अलग जा खड़े हुए, क्योंकि डाकुओंका साथ देनेसे उन्हें भी उनके पापका भागी बनना पड़ता। यह सोचकर वे तलवार फेक चले ही जा रहे थे, कि इसी समय भवानन्द उनके सामने आ खड़े हुए। महेन्द्रने पूछा-"महाशय! आप कौन हैं?"
भवानन्दने कहा-"यह जानकर तुम क्या करोगे?"