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ग्यारहवां परिच्छेद


कहा, यदि स्त्री कन्याको न छोड़ना पड़े तो मुझे भी यह व्रत ग्रहण कराओ।"

भवा०-"जो यह व्रत ग्रहण करता है, उसे स्त्री कन्या छोड़ देनी पड़ती है। यदि तुम यह व्रत ग्रहण करोगे, तो स्त्री कन्यासे न मिल सकोगे। हां उनको रक्षाका पूरा बन्दोबस्त किया जायगा, परन्तु व्रतकी सफलता पर्यन्त तुम उनका मुख देख न सकोगे।"

महेन्द्र,—तब तो मैं यह व्रत न लूंगा।"




ग्यारहवां परिच्छेद।

रात बीती, सवेरा हुआ। वह निर्जन वन जो अबतक अंधकारमय और सूनसान था, प्रकाशमय हो गया और पक्षियोंकी चहचहाहटसे आनन्दमय हो उठा। उसी आनन्दमय प्रभातमें, उस आनन्द काननके 'आनन्द मठ' में सत्यानन्द ब्रह्मवारी मृगचर्मपर बैठे साध्या कर रहे हैं। पासमें जीवानन्द बैठे हुए हैं। इसी समय भवानन्द महेन्द्रसिंहको साथ लिये हुए आ पहुंचे। पर ब्रह्मचारीजी एकाग्रचित्त सन्ध्या कर रहे थे, इससे किसीको बोलनेका साहस न हुआ। कुछ देर बाद जब इनकी सन्ध्या समाप्त हुई, तब भवानन्द और जीवानन्द दोनों ही उन्हें प्रणाम कर, उनके पैरोंकी धूल सिरपर चढ़ा, विनम्र होकर बेठ रहे। सत्यानन्दने भवानन्दको इशारेसे अपने पास बुलाया और उन्हें बाहर ले गये। क्या बातचीत हुई, नहीं मालूम, पर जब वे दोनों मन्दिरमें लौट आये, तब ब्रह्मवारीने अपने मुंहपर दया भरी हंसी लाकर महेन्द्रसे कहा,-"बेटा! मैं तुम्हारे दुःखसे स्वयं बड़ा