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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/४१

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आनन्द मठ


दुःखी हो रहा हूं। कल एकमात्र दीनबन्धु भगवानको हो दयासे मैं तुम्हारी स्त्री कन्याके प्राण बचा सका हूं।" यह कह, ब्रह्मचारी ने कल्याणीकी रक्षाका सारा हाल कह सुनाया। इसके बाद बोले,-"चलो, अब वे दोनों जहां बैठी हैं, वहीं तुम्हें ले चलूंगा।"

यह कह, ब्रह्मचारीजी आगे आगे चले और महेन्द्र उनके पीछे। दोनों देवालयके भीतर गये। वहां पहुंचकर महेन्द्रने देखा, कि बड़ाही लम्बा चौड़ा और ऊंचा कमरा है। उस बालसूर्यकी किरणोंसे जब साराका सारा जंगल प्रस्फुटित मणि की भांति जगमगा रहा है, उस लम्बे चौड़े कमरे में प्रायः अंधेरा ही छाया हुआ है। पहले महेन्द्रको यह न मालूम पड़ा, कि उस घरमें क्या रखा है, पर आंखें गड़ाकर देखनेसे उन्हें दिखलाई पड़ा कि एक विशाल चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है, जिसके चारों हाथोंमें शंख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं, हृदयपर कौस्तुभमणि शोभा पा रहा है और सामने सुदर्शन चक्र मानों घूम रहा है। सामने दो सिरकटी मूर्तियां है जिनके शरीर रक्तरञ्जित है, सामने पड़ी हुई है जो शायद मधु और कैटभकी है। बाई ओर बिखरे केश कमलकी मालासे सुशोभित लक्ष्मी भयभीत सी खड़ी हैं।दाहिनी ओर सरस्वता पुस्तक, वीणा और मूर्तिमत् राग-रागि-नियोंसे घिरी हुई खड़ी हैं। विष्णुकी गोद में एक मोहिनी मूर्ति पड़ी हुई है, जो लक्ष्मी और सरस्वतीसे कहीं अधिक सुन्दरी और ऐश्वर्य और प्रतापमें बढ़ी चढ़ा मालूम पड़ती है। गन्धर्व, किन्नर, देव, यक्ष, सब उसकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारीने अति गम्भीर और अति भीत स्वरसे पूछा, "क्यों महेन्द्र! सब, देख रहे हो न?"

महेन्द्र-"हां, देख रहा हूं।"

ब्रह्म-विष्णुको गोदमें कौन है?"

महेन्द्र-“देखता तोहूं, पर वे कौन हैं?"