अपने सौभाग्यको अपने ही पैरों तले कुचल रही हैं। हाय मां!" यह कहते कहते ब्रह्मचारीकी आंखों से आंसुओंकी धारा बह चली।
महेन्द्रने पूछा-"हाथमें खड्ग-खप्पर क्यों है?"
ब्रह्म-"हम उनकी सन्तान हैं, इसीसे हमने मांके हाथमें यही अस्त्र दे दिये हैं। बोलो-बन्दे मातरम्।”
“बन्दे मातरम्” कहकर महेन्द्रने कालीको प्रणाम किया। तब ब्रह्मचारोने कहा,-"इधर आओ।" यह कह, वे दूसरी सुरंगमें घुसे और उसी राहसे ऊपर चढ़ने लगे। सहसा उनकी आंखें प्रातःकालके सूर्यको किरणोंसे चमक उठीं। चारों ओरसे पक्षी सुरीले गीत गाने लगे। महेन्द्रने देखा कि एक संगमर्मरके बने हुए लम्बे चौड़े मन्दिरके अन्दर एक सोनेकी बनी हुई दशभुजी मूर्ति, बालसूर्यकी किरणोंसे देदीप्यमान मानों हंस रही। ब्रह्मवारीने प्रणाम कर कहा,--“देखो, मांका यही भविष्य रूप होगा। दशों दिशाओं में दशों भुजाए फैली हुई हैं, जिनमें हथियारके स्थान तरह तरहकी शक्तियां सुशोभित हैं, पैरों तले शत्रु विमर्दित होकर पड़ा हुआ है, उनके चरणोंकी सेवा करने वाले बड़े बड़े वीर केसरी शत्रु संहार करनेमें लगे हुए है। “दिग्भुजा" कहते कहते सत्यानन्दका गला भर आया और वे रोने लगे,-"दिग्भुजा, नाना आयुधधारिणो शत्रु मर्दिनी वीरेन्द्र-पृष्ठ-विहारिणी; दक्षिण भागमें भाग्यरूपिणी लक्ष्मी और वाम भागमें वाणो, विद्या-विज्ञान-दायिनी सरस्वती मौजूद हैं। साथ ही बलरूपी कार्तिकेय और कार्य-सिद्धि-रूपी गणेश भो विराजमान हैं। आओ; हम दोनों ही मांको प्रणाम करें।"
तब वे दोनों व्यक्ति ऊपरको सिर उठा; हाथ जोड़; एक स्वरसे प्रार्थना करने लगे।
“सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके!