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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/४२

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ग्यारहवां परिच्छेद


ब्रह्म॰ "मां।"

महेन्द्र-"मां कौन?"

ब्रह्म॰—"हमलोग जिसकी सन्तान हैं।"

महेन्द्र-“वे कौन हैं?"

ब्रह्म० -"समय आनेपर उन्हें पहचान लोगे, बोलो, “बन्दे मातरम्"। अब चलो, तुम्हें और कुछ दिखलाऊ।" यह कह, ब्रह्मचारी उन्हें एक दूसरे कमरेमें ले गये। वहां जाकर महेन्द्रने देखा, कि एक अपूर्व, सर्वाङ्गसम्पन्ना, सर्वाभरण भूषिता जगद्धात्रीकी मूर्ति रखी है। महेन्द्रने पूछा-"ये कौन हैं?"

ब्रह्मा-“मां, जैसी पहले थी, उसीकी वह मूर्ति है।"

महेन्द्र-मांने हाथी और सिंह आदि जंगली जानवरोंको पैरों तले कुचलकर जंगली जानवरोंके रहनेके स्थानमें अपना पद्मासन जमाया था। उस समय वह सर्वालङ्कारभूषिता और हास्यमयी सुन्दरी थीं। इनकी बाल सूर्यकी तरह कान्ति थी, ये सब ऐश्वर्यों से भरी पूरी थीं। इन्हें प्रणाम करो।"

महेन्द्रने बड़ी भक्तिसे जगद्धात्रिरूपिणी मातृभूमिको प्रणाम किया। तब ब्रह्मवारीने उन्हें एक अंधेरो सुरंग दिखलाते हुए कहा-"इसी रास्तेसे चले आओ।" यह कह वे स्वयं आगे आगे वले। महेन्द्र डरते डरते उनके पीछे हो लिये। भूगर्भके अंधेरे कमरेसे न जाने कैलो रोशनी आ रही थी। उस हलकी रोशनामें उन्होंने एक काली मूर्ति देखी।

ब्रह्मचारीने कहा,-"देखो यह मांका वर्तमान रूप है।"

महेन्द्रने डरते हुए कहा,-"मां काली हो गयी हैं?

ब्रह्म-"हां, काली हो हा गयी हैं-एकदम अन्धकारसे घिरी हुई कालिमामयी हो रही हैं। इनका सर्वस्व लुट गया है, इसीसे नंगी हो रही है। आज सारा देश श्मशान तुल्य हो रहा है इसीलिये माने कंकालकी माला धारण कर ली है।