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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/४५

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आनन्द मठ


रखे ये दोनों कल रातके लूटे हुए रुपयोंकी गड्डियां लगानेमें लगे हुए थे। सत्यानन्दने कमरेमें प्रवेश करते ही कहा-"जीवानन्द! महेन्द्र भो हमारे दलमें आनेवाला है। उसके मिल जानेसे सन्तानोंका विशेष उपकार होगा, क्योंकि उसके बाप दादोंका सञ्चित सारा धन मांकी सेवामें लग सकेगा, पर जबतक वह काय मनो वाक्यसे मातृभक्त नहीं बन जाता उसे ग्रहण न करना। अपना अपना काम करके तुम लोग भिन्न भिन्न समयपर उसका अनुसरण करते रहना। अवसर देखकर उसे श्रीविष्णु भगवानके मण्डपमें ले आना। समय कुसमयमें उसकी रक्षा बराबर करते रहना; क्योंकि दुष्टोंका शासन करना जैसा धर्म है वैसा ही शिष्टोंकी रक्षा करना भी है।




बारहवां परिच्छेद।

अनेक कष्ट सहनेके बाद महेन्द्र और कल्याणीकी मुलाकात हुई। कल्याणी फूट फूटकर रोने लगी। महेन्द्र तो और भी फटफटकर लगे रोने धोनेके बाद आंखें पोंछने लगे। जितना अधिक आंखें पोंछते उतने ही अधिक आंसू उमड़ आते। आंसू रोकनेके लिये ही कल्याणीने खाने पीने की बात छेड़ दी। ब्रह्मचारीके अनुवर जो कुछ भोजन रख गये थे; उसको खानेके लिये उसने महेन्द्रसे अनुरोध किया। दुर्भिक्षके दिनोंमें अन्न व्यञ्जन कहां मिलते हैं। पर देशमें जो कुछ है, वह 'सन्तानों' के लिये सुलभ ही है। उस जंगलमें साधारण मनुष्यकी पहुंच नहीं थी, इसलिये इस दुर्गम वनके फलोंको कोई नहीं लेने आता था, नहीं तो जहां कहीं फल दिखाई पड़ते थे, भूखसे तड़पते हुए लोग उसे तोड़कर खा जाते थे। इसीसे ब्रह्मचारीके