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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/४६

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बारहवां परिच्छेद


अनुचर अनेक तरहके जङ्गली फल और थोड़ा सा दूध रख गये थे। इन संन्यासियोंके बहुत सी गायें भी थीं। कल्याणीका कहा मान, महेन्द्रने पहले तो स्वयं कुछ फलाहार किया। इसके बाद दूधमेंसे थोडासा लड़कीको पिलाया और थोडासा बचाकर रख दिया कि फिर पिलायेंगे। इसके बाद ही दोनोंको नींद आने लगी और उन्होंने निश्चिन्त होकर कुछ देर विश्राम किया। नींद टूटनेपर दोनोंमें इस बातकी सलाह होने लगी कि अब कहां चलना चाहिये। कल्याणीने कहा,-"विपद की बात सोचकर ही घर छोड़कर बाहर निकले थे। पर अब देखती हूं कि घरसे तो बाहर ही विपद बहुत है। तब चलो, घर ही लौट चलें।” महेन्द्रका भी यही अभिप्राय था। वे चाहते थे कि कल्याणीको घरपर रख किसी को उसकी देख रेखके लिये ठीक कर चला आऊ और इस परम रमणीय अलौकिक, पुनीत मातृ सेवा-वरमें लग जाऊ। इसलिये वे झट राजी हो गये। इस तरह दोनों व्यक्ति पूरी तरह विश्राम कर कन्याको गोदमें ले पदचिन्ह ग्रामको ओर चले।

पर उस अगम वनसे पदचिन्ह जानेका रास्ता उन्हें नहीं मिला। उन्होंने सोचा था कि जङ्गलसे बाहर निकलते ही रास्ता मिल जायगा पर यहां तो बाहर निकलनेका ही रास्ता न मिला। वे बड़ी देरतक जङ्गलके भीतर भटकते रहे; फिर फिर कर उसी मठ में लौट आते थे। कहींसे रास्ता नहीं दिखाई देता था। सामने ही एक वैष्णवोंका बाना पहने हुए ब्रह्मचारी खड़े हंस रहे थे। उन्हें देख, महेन्द्रने झुझलाकर कहा-"बाबाजी! हंसते क्यों हो?"

बाबाजी--"तुम लोग इस वनमें कैसे आये?"

महेन्द्र-"चाहे जैसे आये, पर आ गये हैं।"

बाबाजी-फिर बाहर क्यों नहीं निकल पाते?" इतना कह वे फिर हंसने लगे।