सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३
बारहवां परिच्छेद


हुए वह कुछ देरतक चुपचाप बैठी रही। फिर पूछा,--"आज मैं आपको बड़ा उदास देख रही हूं। सिरपर जो विपद् आयी थी, वह तो टलही गयी, फिर यह उदासी किस लिये?"

महेन्द्रने एक लम्बी सांस लेकर कहा,-"अब मैं अपने आपेमें नहीं हूं। क्या करू' कुछ समझ नहीं आता।"

कल्याणी---"क्यों?"

महेन्द्र-"तुम्हारे खोजानेपर मेरे ऊपर जो बीती, उसका हाल कहता हूं, सुनो।"

यह कह महेन्द्रने सारी कथा व्यौरेवार कह सुनायी।

कल्याणीने कहा,-"मेरे ऊपर भी बड़े सङ्कट आये। मैं भी बड़ी मुसीबतमें पड़ गयी थो। पर वह सब सुनकर क्यो लाभ, इतना दुःख होनेपर भी मुझे कैसे नींद आ गयी थी, समझमें नहीं आता; कल रात पिछले पहर मुझे नींद आ गयी थी। नींदमें मैंने स्वप्न देखा, किस पुण्यबलसे मैंने वैसा स्वप्न देखा, नहीं कह सकती। मैंने देखा कि मैं एक अपूर्व स्थानमें पहुंच गयी हूँ। वहां मिट्टीका नामोनिशान नहीं है है केवल ज्योति अत्यन्त शीतल, तड़ित प्रवाहकी तरह अत्यन्त मधुर ज्योति। वहां मनुष्य नहीं है केवल ज्योतिर्मयी मूर्तियांहो दिखाई पड़ती हैं। वहां किसी तरह का शब्द नहीं होता केवल कहीं दूरपर मधुर गोत वाद्यकी तरह कोई शब्द सुनाई पड़ता है। नवविकसित लक्ष लक्ष मल्लिका मालती तथा गन्धराजकी गन्ध चारों ओर फैली है। वहां सबसे ऊपर, सबके दर्शनीय स्थानमें न जाने कौन बैठा है, मानों नील पर्वत अग्निके समान भीतर ही भीतर मन्द मन्द जल रहो हो। उनके सिरपर बड़ा भारी दीप्तमान किरीट शोभा पा रहा है। उनके चार हाथ हैं और उनके दोनों तरफ कौन थीं, मैं नहीं पहचान सकी कदाचित् वे स्त्री-मूर्तियां थीं, किन्तु उनमें इतना रूप, इतनी ज्योति, इतना सौरभ था कि मैं तो उनकी ओर देखते ही