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आनन्द मठ


विह्वलसी हो गयी। और अच्छी तरह आंखें लगाकर न देख सकी और न पहवान सकी, कि ये कौन हैं। उन्हीं चतुर्भुज देवताके पास एक और स्त्री-मूर्ति थी। वह जी ज्योतिसे जगमगा रही थी; पर चारों ओर मेघ छा रहे थे, इसलिये ज्योति अच्छी तरह फूटकर बाहर नहीं निकल रही थी-धुधली दिखाई दे रही थी। इससे मालूम होता था, कि वह कुछ खिन्न सी हो रही है। मुझे ऐसा मालम पड़ा मानों कोई अत्यन्त रूपवती स्त्री मार्मिक वेदनाके कारण रो रही है। मन्द सुगन्धि युक्त वायुके तरङ्गोंमें प्रवाहित मैं भी उसो चतुर्भुजी मूर्ति के सिंहासनके सामने आ गयी। तब मानों उसी दुःखिता और मेघमण्डिता स्त्रीने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा-"बस यही है वह, जिसके कारण महेन्द्र मेरी गोदमें नहीं आता।" इसी समय मुझे सुरीली मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी। उस चतुर्भुजने मानों कहा-"तुम स्वामीको छोड़कर मेरे पास चली आओ। यही तुम लोगोंकी मां हैं, तुम्हारा स्वामी इनको सेवामें लगने वाला है। यदि तुम अपने स्वामीके पास रहोगी, तो वह इनकी सेवा न कर सकेगा। तुम चली आओ।" मैं रो पड़ी और बोली, कि स्वामीको छोड़कर कैसे आऊँ? एक बार फिर वही मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी कि मैं ही स्वामी, मैं हो माता, मैं हो पिता, मैं ही पुत्र और मैं ही कन्या हूँ तुम मेरे निकट आ जाओ। इसपर मैंने क्या उतर दिया, याद नहीं है, क्योंकि इसके बाद ही मेरी नींद टूट गयी।" यह कहकर कल्याणी चुप हो गयी।

महेन्द्र भी विस्मय और भयसे चुप हो रहे। पेड़के ऊपर दहियल नामक पक्षा बोल उठा, पपीहा 'पी कहां के शोरसे आसमान गुजाने लगा, कोयलकी कूक दशों दिशाओं में गूज गयी, श्रृंगराज अपने सुरीले कण्ठसे काननको प्रतिध्वनित करने लगे। सामने नदी कलकल शब्द कर रही थी। हवा जङ्गली फूलोंकी