पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/६८

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पन्द्रहवां परिच्छेद


उस युवतीने कहा-“जल्दी क्या! क्या ननदोईजीने तुम्हें मारा है? देहमें तेलकी मालिश करनी होगी?"

निमी०-"कुछ ऐसी ही बात है। घरमें तेल तो होगा ही। यह सुन, वह स्त्री तेलका बर्त्तन निकाल लायी। निमाईने झट उसमेंसे तेल अंजुलिमें ढाल लिया और उस स्त्रीके सिरमें तेल लगाकर मामूली तरहसे केश भी बाँध दिया। इसके बाद उसके गालमें हलकी सी चपत लगाकर बोली-"तुम्हारी वह ढाकेकी साड़ी कहां है?” यह सुन वह स्त्री कुछ विस्मित होकर बोली,-"तुम पागल तो नहीं हो गयी हो?"

निमीने उसकी पीठपर एक चपत जमाकर कहा-“पहले साड़ी निकाल लाओ।"

तमाशा देखनेके लिये वह स्त्री साड़ी ले आयी। हमने तमाशा देखनेकी बात इसलिये कही कि इतने दुःखमें पड़कर भी उसको तमाशा देखनेकी प्रवृत्ति नष्ट नहीं हुई थी। एक तो नयी जवानी, दूसरे नयी उमरका वह फूले हुए कमलका सा सौन्दर्य! इतनेपर भी उस बिचारीको तेल-फुलेल, साज-सिङ्गार और आहार-विहारसे कोई सरोकार नहीं, उसका वह जगमगाता हुआ सौन्दर्य उसी सौ-सौ पैबंद लगे हुए कपड़ेके अन्दर ढका रहता था। उसके शरीरमें बिजलीकीसी चञ्चलता,आंखोंमें कटाक्ष, मुंहपर हंसी और हृदयमें धैर्य भरा हुआ था, ठीक समय खाना-पीना नहीं, तो भी शरीरमें लुनाई भरी हुई थी। सिंगार पटार नहीं तोभी अंग-अंगसे सुन्दरता चू पड़ती थी। जैसे मेघमें बिजली, मनमें प्रतिभा, जगत्के समस्त प्रकारके शब्दों में संगीत और मृत्युके भीतर सुख छिपा रहता है, वैसे ही उसकी रूप-राशिके भीतर न जाने क्या छिपा हुआ था। उसमें अनिर्वच-नीय माधुर्य, अनिर्वचनीय प्रेम और अनिर्वचनीय भक्ति भरी हुई थी। उसने हंसते हंसते (वह हंसी किसीने देखी नहीं) ढाकेकी साड़ी बाहर निकाली-बोली-“लो साड़ी। इसे क्या करूं?"