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आनन्द मठ

की, मुँहजली कहीं की! तू सदा अण्डवण्ड बका करती है।"

निमाई ने कहा, "अच्छा मैं बंदरी सही, मुँहजली सही। पर कहो तो ज़रा भाभी को बुला लाऊ।"

जीवानन्द—"लो, मैं चला। यह कह वे झटपट दौड़े हुए बाहर की ओर चले, पर निमाई ने आकर दरवाजा रोक लिया और किवाड़ बन्द कर द्वारकी ओर अपनी पीठ किये हुए बोली—"पहले मुझे मार डालो, तब जाना। बिना भाभी से भेंट किये तुम कदापि न जाने पाओगे।"

जीवा°—"क्या तू नहीं जानती कि मैंने कितने आदमियों को मार डाला है?"

यह सुनते ही निमीको क्रोध चढ़ आया। वह बोल उठी— "आह! क्या कहते हैं! बड़ी कीर्त्तिका काम कर डाला है तुमने स्त्री को छोड़ दिया है, बहुत से आदमियों को मार डाला है। इसी से क्या मैं तुमसे डर जाऊगी? तुम जिस बाप के बेटे हो, मैं भी उसी बाप की बेटी हूं। अगर आदमियों की जान लेनी भी बड़ी बड़ाई की बात हो, तो लो मेरी भी जान लेकर नाम कमा लो।"

जीवानन्द हंस पड़े और बोले—"अच्छा, जा, किस पापिन को बुलाने जाती थी बुला ला। किन्तु देख! फिर यदि ऐसी बात कहेगी, तो तुझे कुछ कहूं या नहीं, पर उसका सिर मुंड़ा, गधेपर चढ़ाकर देश से निकाल बाहर कर दूंगा।"

निमीने मन ही मन कहा—"तब तो मेरी भी जान बच जायगी।" और हंसती हुई बाहर चली गयी और पासवाली एक फूसकी झोपड़ी के अन्दर घुस पड़ी। उस झोपड़ी के अन्दर एक स्त्री वैठी हुई चरखा चला रही थी। उसकी देह पर के कपड़े में सौ सौ पैवंद लगे थे। उसके सिर के बाल रूखे थे। निमाई ने उसके पास आकर कहा—"भाभी बस जल्दी!"