पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/७

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कथा मुख

बड़ी दूरतक फैला हुआ घना जङ्गल और और तरह के पेड़ मौजूद होने पर भी अधिकतर शालके ही वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। उन पेड़ों के सिरे और शाखा-पत्र एक दूसरे से ऐसे मिले हुए हैं, और बहुत दूरतक वृक्षों की ऐसी घनी श्रेणी वन गयी है, कि उनके बीच में तनिक भी छिद्र या फाँक नहीं मालूम पड़ती; यहां तक कि, प्रकाश आने का भी कहीं से रास्ता नहीं रह गया है। इस प्रकार वृक्ष के पल्लवों का अनन्त समुद्र हवा की तरङ्गों पर नाचता हुआ, कोसों तक फैला हुआ दिखाई पड़ता है। नीचे घोर अन्धकार है। दोपहर में भी सूर्य की रोशनी साफ नहीं मालूम पड़ती। वहां का दृश्य बड़ा ही भयानक मालूम पड़ता है; इसी से उसके भीतर कभी कोई आदमी नहीं जाता। पत्तों की लगातार खड़खड़ाहट और जंगली जानवरों तथा चिड़ियों की बोली के सिवाय और कोई शब्द वहाँ नहीं सुनाई पड़ता।

एक तो इस लम्बे चौड़े और घने जंगल में आप ही सदा अन्धकार छाया रहता है; दूसरे, रात का समय, फिर क्या पूछना है? दोपहर रात बीत गयी है-बड़ी अधेरी रात है। जंगल तो घुप अन्धेरा है; हाथ को हाथ नहीं सूझता। वन के भीतर तो ऐसा अन्धेरा हो रहा है, जैसा भूगर्भ में होता है।