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आनन्द मठ


ज्ञानानन्द-"कुछ गोलमाल हुआ सा मालूम पड़ता है। कलकी घटनाके कारण मुसलमान जहां कहीं गेरुआ कपड़ा देखते हैं, वहीं धरपकड़ करने लगते हैं। अन्य सन्तानोंने तो गेरुआ वस्त्र उतार फेंके। केवल सत्यानन्द प्रभु गेरुमा पहने हुए शहरकी ओर गये हैं। कहीं वे मुसलमानोंके फन्देमें न पड़ जाय।"

भवानन्द-"उन्हें पकड़ रखे, ऐसा कोई मुसलमान इस बङ्गाल प्रान्तमें नहीं पैदा हुआ। मैंने सुना है, कि धीरानन्द उनके पीछे पीछे गये हैं। तोभी मैं जरा शहरतक घूम आना चाहता हूं, तुम मठकी रखवाली करो।"

यह कह, भवानन्दने एक सूनसान कमरेमें जा, एक बड़े भारी सन्दूकमेंसे कई तरहके कपड़े बाहर निकाले। सहसा भवानन्दका रूप ही औरका और हो गया। गेरुआ कपड़ोंके स्थानमें चूड़ीदार पायजामा, अचकन, चोगा, सिरपर अम्मामा और पैरोंमें नागौरी जूते शोभा देने लगे। ललाटसे त्रिपुण्डुके चिह्न दूर हो गये। भौरेकी तरह काली काली दाढ़ी मूंछोंसे घिरा हुआ सुन्दर मुखमण्डल अपूर्व शोभा दिखाने लगा। उस समय वे मुगल नवजवान मालूम पड़ने लगे। इस तरह मुगलका वेश बना, हथियारसे लैस होकर वे मठसे बाहर निकले। वहाँसे कोस डेढ़ कोसकी दूरीपर दो नीची पहाड़ियाँ थीं। उन पहाड़ोंपर घने उन दोनों पहाड़ियोंके बीच में एक सूनसान स्थान था। वहां बहुतसे घोड़े बंधे थे। वही मठवासियोंकी अश्वशाला थी। उन्हीं घोड़ोंमेंसे एकपर सवार हो भवानन्द नगरकी ओर चल पड़े।

जाते जाते वे सहसा एक जगह ठिठक गये। उन्होंने देखा, कि कलनादिनी तरङ्गिणीके तीरपर आसमानसे गिरे हुए नक्षत्र-की भांति, मेघसे बिछुड़ी हुई बिजलीकी नाई दमकती कान्तिवाली एक स्त्री पड़ी है। उन्होंने यह भी देखा, कि उसके शरीरमें जीवनका कोई चिह्न नहीं है और पास ही जहरकी डिबिया