पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/७४

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सत्रहवां परिच्छेद


पड़ी है। भवानन्द विस्मित, क्षुब्ध और भीत हुए। जीवानन्दकी ही तरह भवानन्दने भी महेन्द्रकी स्त्री और कन्याको कभी नहीं देखा था। जीवानन्दने जिन कारणोंसे उनपर महेन्द्रकी स्त्री कन्या होनेका सन्देह किया था, वे कारण भवानन्दके सामने उपस्थित नहीं थे। एक तो उन्होंने ब्रह्मचारी और महेन्द्रको कैद होकर आते नहीं देखा था; दूसरे, लड़की भी वहां नहीं थी। डिबिया देखकर उन्होंने अनुमान किया, कि कोई स्त्री विष खाकर मर गयी है। यही सोचकर वे उस शवके पास चले आये और उसके सिरपर हाथ रखकर देरतक कुछ सोचते रहे। इसके बाद उन्होंने उसके सिर, बगल, पांजर, हाथ आदिपर हाथ रखकर देखा और अनेक प्रकारसे परीक्षा की, जो साधारणतः लोग नहीं जानते। तब उन्होंने मन-ही-मन कहा-“अब भी समय है, पर इसे बचाकर ही क्या करूंगा?"

इसी प्रकार भवानन्दने बड़ी देरतक सोच-विचार किया। इसके बाद जङ्गलमें जाकर वे एक वृक्षके बहुतसे पत्ते तोड़ लाये। उन्हें हाथसे ही मलकर उन्होंने उनका रस निचोड़ा और उस मुर्दक ओठमें अंगुली डाल, उसीके सहारे वह रस उसके गलेके नीचे उतारने लगे। इसके बाद उन्होंने थोड़ासा रसउसकी नाकमें भी टपकाया और कुछ हाथ पैरोंमें भी मल दिया। वे बार बार ऐसा ही करने और रह रहकर उसकी नाकके पास हाथ ले जाकर देखने लगे कि सांस चलती है या नहीं। उन्हें मालूम पड़ा, मानो उनका यत्न विफल हुआ चाहता है। इस प्रकार बहुत देरतक परीक्षा करते रहनेके बाद भवानन्दका चेहरा खिल उठा, क्योंकि उनकी अंगुलीमें धीरेसे सांस चलनेकी हवा लगी। अब तो वे और भी रस निचोड़ निचोड़कर उसे पिलाने लगे। क्रमसे जोर जोरसे सांस चलने लगी। अब नाड़ी-पर हाथ रखकर भवानन्दने देखा कि नाड़ी चल रही है। अन्तमें पूर्व दिशाके प्रथम अरुणोदयकी नाई प्रभातके खिलते हुए कमल