पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७०
आनन्द मठ


की तरह तथा अनुरागके प्रथम अनुभवकी भांति कल्याणीने धीरे धीरे आंखें खोल दी। यह देख भवानन्द उस अधमरी देहको घोड़ेपर चढ़ा जल्दी नगरकी ओर चले।




अठारहवां परिच्छेद

सांझ होते होते समस्त सन्तान सम्प्रदायमें यह बात फैलगयी कि, सत्यानन्द ब्रह्मचारी और महेन्द्रसिंह बंन्दी होकर नगर के कैदखानेमें बन्द है। यह सुनते ही एक एक, दो दो, दस दस, सौ सौ करके सन्तान-सम्प्रदायके लोग, उस मन्दिरके चारों तरफवाले जङ्गलमें आकर इकट्ठे होने लगे। सभी हथियारबन्द थे। सबकी आंखोंमें क्रोधकी आग जल रही थी, मुखसे दम्भ प्रगट हो रहा था और होठोंपर दृढ़ प्रतिज्ञाकी छाया थी। पहले सौ आये, पीछे हजार, फिर दो हजार हो गये। इसी तरह उनकी संख्या बढ़ती गयी। यह देख, मठके द्वारपर खड़े होकर ज्ञानानन्द तलवार हाथमें लिये ऊंचे स्वरसे कहने लगे,-"हमलोगोंने बहुत दिनोंसे यह इरादा कर रखा है, कि यह नवाबी इमारत, यह यवनपुरी ढाहकर नदीमें फेक देगे। इन शूकरों के खोभारमें आग लगाकर माता वसुमतीको फिर पवित्र करेंगे। भाई! आज वही दिन आ पहुंचा है। हमारे गुरुके गुरु, परम गुरु, अनन्त, ज्ञानमय, सदा शुद्धाचारी, लोकहितैषी देशहितैषी पुरुष जिन्होंने सनातनधर्म के पुनः प्रचारके लिये अपना जीवन ही दे रखा है, जिन्हें हमलोग विष्णु का अवतार मानते हैं, जो हमारी मुक्तिके द्वार हैं, वेही आज मुसलमानोंके कैदखाने में पड़े हैं। क्या हमारी तलवारमें धार नहीं रह गयी है? (हाथ उठाकर)-क्याहमारी इन भुजामोंमें बल नहीं रहा? (फिर छाती ठोंककर)