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आनन्द मठ


मिलाना नहीं चाहते थे, पर पीछे उसकी बुद्धि की प्रखरता, चतुरता और कार्यदक्षता देख, उन्होंने उसे बड़े आदरसे दलमें मिला लिया। शान्ति उनके साथ रहकर कसरत करती और हथियार चलाना सीखती थी, इसीसे वह धीरे धीरे बड़ी मिहनती हो गयी। उनके साथ रहकर उसने बहुतसे देश देखे, बहुतसी लड़ाइयां देखीं। वह हथियार चलाने में भी निपुण हो गयी।

क्रमशः उसमें जवानीके चिह्न दिखायी देने लगे। बहुतसे संन्यासियोंको यह मालूम हो गया, कि यह तो वेश बदले कोई स्त्री है, पर संन्यासी लोग आमतौरसे जितेन्द्रिय हुआ करते हैं। इसीसे किसीने उससे कुछ नहीं कहा।

संन्यासियोंमें बहुतसे पण्डित भी थे। शांतिको संस्कृतमें व्युत्पन्न देखकर एक पण्डित संन्यासी उसे पढ़ाने लगे।

हम पहले लिख आये हैं कि आमतौरसे संन्यासी लेग जितेन्द्रिय हुआ करते हैं; पर सभी ऐसे नहीं होते। ये पण्डितजी भी वैसे नहीं थे अथवा हो सकता है, कि वे शान्तिको नयी जवानीके उमंगसे खिले लावण्यको देखकर मुग्ध हो गये हों और इन्द्रियां उन्हें सताने लगी हों। उन्होंने अपनी शिष्याको श्रृंगाररसके काव्य पढ़ाने आरम्भ किये और जो व्याख्या सुनाने योग्य न भी होती, उसे भी सुनाने लगे। उससे शान्तिकी कुछ हानि तो नहीं हुई भलाई हुई। अबतक शान्ति यह नहीं जानती थी, कि लजा किसे कहते हैं? अब स्त्री स्वभाव-सुलभ लज्जा आपही आ उपस्थित हुई। पुरुषचरित्रके ऊपर निर्मल स्त्रीचरित्रकी अपूर्व आभा शान्ति के गुणोंको और भी चमकाने लगी। शान्तिने पढ़ना छोड़ दिया।

व्याघ्र जिस प्रकार हरिणीके पीछे दौड़ पड़ता है, उसी प्रकार शान्ति के अध्यापक भी उसके पोछे दौड़ने लगे। शान्तिने ब्यायाम आदिके द्वारा पुरुषोंसे भी अधिक बल संचय कर लिया था, इसलिये वह अध्यापकजीके पास आते ही थप्पड़ों और